Thursday, July 19, 2018

शिक्षा में द्वंद्व


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा में द्वंद्व का मायने व्यापक है। यह द्वंद्व सामान्य कॉफ्लिक्ट नहीं है। जैसे समाज में पाया जाता है। यह द्वंद्व कई स्तरों पर हैं। पहला हम शिक्षा से क्या हासिल करना चाहते हैं? यदि हमने शिक्षा के कुछ सर्वमान्य तय उद्देश्य तय कर रखे हैं तो उन्हें पाने के लिए हमने कौन सी रणनीतियां बनाईं? उन रणनीतियों के ज़रिए हम किन राहों का इस्तमाल करन रहे हैं? क्या हमारे पास पूरी प्लानिंग है? क्या उन्हें कार्यान्वित करने की हमारी राजनैतिक, नीतिगत और सामाजिक इच्छा शक्ति है आदि। तकरीबन सौ साल से भी ज़्यादा सालों से हमारी शिक्षा इन्हीं अंतर द्वंद्वों से लड़ रही है। इसी संघर्ष का परिणाम है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम को कानून बनने में लंबा समय लगा। प्रकारांतर से शायद सत्ताओं की प्राथमिकता सूची में शिक्षा शामिल ही नहीं हो सकी। जब हमें आजादी मिली वो भी तकरीबन सत्तर साल बीत चुके हैं, अभी भी हमारे प्राथमिक स्कूलों में जाने वाले बच्चों की बड़ी संख्या स्कूली शिक्षा के हाशिए पर हैं। यह विफलता नहीं तो इसे और किस नाम से पुकारा जाए। विभिन्न मंचों पर हमने घोषणाएं तो कीं कि हम फलां वर्ष तक सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मुहैया करा देंगे। इनमें 1990, 2000, 2015 आदि ऐसी ही किनारें हैं जहां शिक्षा को किनारे लगना था। अगर मगर किन्तु परन्तु के कारण अब यह किनारा 2030 तक खिसका दिया गया है।
उक्त जिन द्वंद्वों की चर्चा की गई है वे तो हैं ही साथ ही नीतिगत स्तर पर भी बहुत से मोड़ मुहानें हैं जहां से शिक्षा अचानक मुड़ जाती है। जब कुछ साल गुजर जाते हैं तब एहसास होता है कि हम तो शिक्षा के मूल मकसद को कहीं पीछे छोड़ आए हैं। आज की तारीख़ी हक़ीकत यह है कि शिक्षा की बुनियादी मांगों व प्रकृति को भी अच्छे से रेखांकित नहीं कर सके हैं। कभी हम शिक्षा के नाम पर पढ़े-लिखने भाषायी कौशलों को शिक्षा के उद्देश्यों में शामिल कर चिल्लाने से लगते हैं। ‘‘पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया’’ यहां इन उद्देश्य में क्या हमारी नज़रें सिर्फ बच्चों को साक्षर बनाना है या बच्चे जो पढ़़ रहे हैं उन्हें समझ कर पढ़ और बढ़ रहे हैं इसे भी जांचने की आवश्यकता है। पढ़ना-लिखना शिक्षा का उद्देश्य तो है ही साथ ही यह कौशल भाषा के हिस्से आया करता है। श्रवण-वाचन, पठन और लेखन। क्या हम भाषायी कौशल के कंधे पर शिक्षा के उद्देश्य को बैठा सकते हैं विमर्श इस पर होना चाहिए। सत्ता और आम जनता में बीच भी हमेशा से द्वंद्व रहा है।

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