Friday, October 6, 2017

बाज़ार में गुम हम



कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों महासेल में खरीदारी करने चला गया। वैसे खरीदना कुछ था लेकिन वहां से 500, 500 के दो कूपन भी जे़ब में मिला। जो खरीदना था उसकी कुल कीमत पंद्रह सौ की थी। लेकिन टहलते टलहते हमने तकरीबन तीन हजार की शॉपिंग कर ली। जब काउंटर पर गए तो साहब ने कहा, ‘‘सर! ये देखिए ऑफर है पांच हजार से ज्यादा की खरीदारी पर पांच सौ और उससे ज्यादा पर एक हजार के कूपन हैं। क्यों इस मौके को हाथ से जाने देते हैं।’’
चेहरे पर ना नुकुर के भाव देख कुछ देर हमारा चेहरा ताकता रहा। फिर कोशिश की कि ‘‘सर यही देखिए! सिर्फ पांच सौ में कहीं नहीं मिलने वाला। ये तो महासेल है तब...’’
अंत में हमने पांच हजार एक सौ की शॉपिंग कर 500 के कूपन साथ लेते आए। जब पूछा कब तक खरीदारी कर सकते हैं? जवाब दिलचस्प था ‘‘ सर जब मर्जी आ जाएं। लेकिन यह अगले हप्ते जब शॉपिंग करेंगे तब उसमें से पांच से सौ कम कर दिए जाएंगे।’’
है न दिलचस्प!!! यानी बिलावजह एक तो पांच हजार की शॉपिंग की उसपर पांच सौ का लाभ उठाने के लिए फिर शॉपिंग के जाल फेक दिए गए।
दरअसल बाजार में हम ऐसे गुम हो जाते हैं कि हमारी तर्कशक्ति कहीं घास चरने चली जाती है। और तो और क्या बच्चे और क्या बुढ़े और क्या जवान सब इस मॉल संस्कृति में डूबे हैं। कई बार आंखें फटी रह जाती हैं जब किसी के हाथ में पांच छह पैंट्स, शर्ट आदि की बिलिंग कराते देखता हूं सवाल खुदी से करता हूं कि क्या साहब के पास एक भी पैंट व शर्ट नहीं हैं? हालांकि जो उन्होंने पहन रखी है वह भी नई से कम नहीं है। फिर यह प्रवृत्ति क्या है?
सेल में गुम हुए हमारे विवेक और तर्क का परिणाम है कि हम घर को गोदाम बना डालते हैं। कई कपड़ों की तो साल में भी एक के बाद दूसरी बारी नहीं आती। फिर वो ऐसे भूला दिए जाते हैं गोया हमारी है ही नहीं। जब नजर पड़ती है तब तक भूगोल उसके काबिल नहीं रहता। मन मसोस कर हाथ से सहला कर दुबारा किसी कोने में ठूंस देते हैं इस आश में कि कभी इसमें समा पाया तो जरूर पहनूंगा।

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