Monday, October 23, 2017

हम विस्थापितों की कहानी


कौशलेंद्र प्रपन्न
कहानी बहुत पुरानी और दिलचस्प है। दिलचस्प इस तरह से कि हमारे पुरखे वर्षों पहले अपने गांव, जेवार छोड़कर कहीं और रोजी रोटी के लिए बसते चले गए। और हम इस तरह से वैश्विक नागरिक बनते चले गए। हमारी वैश्विकता तब अखरने लगती है जब आपके साथ अपनी भाषा और संस्कृति के साथ मजाक करता है। यह मजाक खूब होता है। बल्कि कई बार आपके अपने भी करते हैं।
देश के बाहर बसे हमारे दोस्त, संगी जन जब भारत की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं तो वे इस आशा से देखते हैं कि उनके पुरखे जिस भारत से गए थे वहां क्या बचा है। उन्हें क्या ऐसा मिल जाए जो वे अपने बच्चों को दे पाएं।
सूरीनाम, हॉलैंड, मॉरीशस, फीजी, अफ्गानिस्तान, कतर आदि में बसे भारतीय व विस्थापित मजदूरों की कहानी भी बड़ी अजीब है। जब कभी कोई पर्व त्योहार का मौसम आता है तब वे वहां भारत की याद में रात गुजार देते हैं। साल में छह माह या दो साल पर भारत लौटते वक्त वे अपने परिवार के लिए सामान की खरीदारी नहीं करते बल्कि अपने वहां होने और आधुनिक होने के प्रमाण गोया बटोर रहे होते हैं। ताकि वे और उनके बच्चे यह बता सकें कि फलां के अब्बू, फलां के भाई बाहर रहते हैं। चंद पैसों में बसर करने वाले भारतीय जब भारत लौट रहे होते हैं तब उनके बैग भरे होते हैं वहां के दोयमदर्ज के सामानों से।
विस्थापन में भाषा भी तो साल दस साल में बदल जाती है। धीरे धीरे अपनी भाषा की तमीज़ से दूर होने लगते हैं। जहां जिस भाषा में रोटी मिलती है वे उसी भाषा में जीने लगते हैं। विस्थापन में देश दुनिया, भाषा, जीवन दर्शन सब कुछ ही विस्थापित हो जाता है। रह जाती है तो बस भदेसपन, अपने यहां की बची खुची कुछ एहसास जो सिर्फ आपकी अपनी होती है।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...