Friday, October 13, 2017

घर ही था वो


घर ही था वो जो संवारा करते थे,
अब वो कबाड़ हो गए,
कुर्सियां लकड़ी की चुन कर बनी थीं,
लायी गयी थी घर में,
बैठकर पिताजी ने पढ़ाया था,
मिल्टन,कालिदास और कबीर,
अब वो कुर्सी कहां गई।
कभी घरों में रहा करते थे,
चार छह लोग,
बायन भी बंटा करता
खटिए पर,
जैसे जैसे भईया बड़ी क्लास में जाते गए,
घर खाली होता रहा।
नौकरी में छूट गई
घर की बात,
आंगन के कोने में बने घरौंदे,
कालका रेल,
आती तो है हर रोज,
सुबह तीन पैंतालीस पर,
अब नहीं उतरते,
घर आने वाले।
दीवाली की रात-
पूरी रात रेते हैं कुल देवता,
धूल में सनी घरों की बातें,
ढुलकती पांवों से टकराती हैं
जब कभी वर्षों बाद जाना होता है।
अब तो पडा़ेस भी बदल गए-
कहते हैं आते नहीं हर साल
बच्चों के लिए हो गए बाहरी,
ओलेक्स पर बेचने को देते हैं राय,
कुर्सी बाबुजी की,
सोफे पर नजर है कमल की।

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