Monday, October 30, 2017

पापा टीचर ही तो हैं!!!


कौशलेंद्र प्रपन्न
हमारा मूल्यांकन समाज बाद में करता है पहले हमारे बच्चे ही मूल्यांकन करते हैं। शिक्षा उन्हें तर्क करना,मूल्यांकन करने, चिंतन करने के योग्य बनाती है तो हमें उनके मूल्यांकन के लिए मानसिकतौर पर तैयार भी होना होगा। यह अलग विमर्श का मुद्दा हो सकता है कि उनके मूल्यांकन के स्तर और सूचक क्या थे। उन्होंने अपने मूल्यांकन में किन बिंदुओं और मान्यताओं को तवज्जो दिया। कहीं बाजार द्वारा स्थापित मूल्यबोध उनके चिंतन शक्ति को तो तय नहीं कर रहा है? यह भी समझने की आवश्यकता है।
क्या टीचर प्रोफेशन इतनी निष्क्रियता भरी और हेय है कि जिनकी कमाई पर बच्चे पले बड़े हुए, अब तक शिक्षा हासिल की उन्हें अपने पिता की कमियों, नाकामियों, जीवन में असफल कहने की हिम्मत देती है। यदि ऐसी ही शिक्षा हमारे बच्चे पा रहे हैं तो हमें अपनी शैक्षिक उद्देश्यों, प्रारूपों पर विचार करने की आवश्यकता है। यदि शिक्षक के बच्चे स्वयं अपने पिता या मां को शिक्षक के रूप स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं तो यह बड़ी िंचंता की बात है। जब अपने ही बच्चों की नजर में टीचर असफल व्यक्ति के तौर पर देखा और कहा जा रहा है तो वह इस प्रोफेशन में आने की तो सोच भी नहीं सकता।
एक शिक्षक क्यां और किन परिस्थितियों में शिक्षण प्रोफेशन में आया इसकी तहकीकात बच्चे नहीं करते। बच्चे बन चुके शिक्षक पिता को देखते हैं। वे यह नहीं देखते कि शिक्षण प्रोफेशन में आने से पूर्व उनके पिता सिविल सेवा परीक्षा में मेन्य तक पहुंच चुके थे। घर के दबाव, जल्दी नौकरी करने के पारिवारिक दबाव की वजह से अपने सपने को पीछे छोड़ अध्यापन को चुनता है। बच्चे उन दबावों को न तो समझना चाहते हैं और न ही उन्हें उससे कोई वास्ता होता है।
सच बात तो यह है कि आज हमारे बच्चे अपने भविष्य की शिक्षा और जीवन के लिए या तो बहुत ज्यादा सचेत हैं या फिर औरों के कंधे पर सवार। उन्हें मालूम ही नहीं है कि उन्हें किस क्षेत्र में जाना है। किस क्षेत्र में वे जा सकते हैं। एक अंधकार की स्थिति उनके सामने हमेशा बनी रहती है। यदि अभिभावक उन्हें रास्ता दिखाने की कोशिश करते हैं तो उन्हें वे बातें नसीहतें और उपदेश लगा करती हैं। कई बार तो साफ कह देते हैं अपनी कहानी रहने ही दो। तब की बात है। आपके समय में सुविधाएं नहीं थीं तो उसमें हमारा क्या कसूर। आपने अपना जीवन जी लिया। हमें तो हमारी जिंदगी अपने तरीके से जीने दो। दरअसल आज के बच्चों ने अपने स्वास्थ्य को जिस कदर ख़राब किया है उसके देखते हुए कई बार महसूस होता है कि उन्हें स्वयं को आकर्षण रखने में दिलचस्पी ही नहीं रही। उनकी इस हालात में लाने में बाजार ने बड़ी गंभीर भूमिका निभाई है। फास्ट फूड, पैकेट फूड ने तो ताजा सब्जियों, फलों और खानों को हाशिए पर धकेला दिया है।

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