Tuesday, July 9, 2013


परीक्षा बड़ ठगनी हम जानी
-कौशलेंद्र प्रपन्न
यूं तो ‘माया बड़ ठगनी हम जानी’ माया के बारे में कहा गया है, लेकिन शिक्षा की दुनिया में परीक्षा किसी माया से किसी भी कोण से कमतर नहीं है। परीक्षा लुभाती है। परीक्षा डराती है। और परीक्षा ही है जो किशोरों और युवाओं की जान भी लेती है। बल्कि कहना चाहिए कि पिछले दस सालों में हमारे  नवनिहालों की जान ले चुकी है। जिन जानों की एफआईआर हुईं वो आंकड़े चीख-चीखकर बताती हैं कि आज की तारीख में परीक्षा मौत के समकक्ष खड़ी हो चुकी है। परीक्षा के चरित्र पर नजर डालें तो नचिकेता को भी परीक्षा की घड़ी को पार करना पड़ा था। वैदिक काल हो या महाकाव्य काल इस समय में भी परीक्षा वजूद में मिलती है। लेकिन आज की परीक्षा और तब की परीक्षा की प्रकृति में बुनियादी अंतर यह था कि उस समय की परीक्षा छात्रों की ज्ञान, समझ, कौशल और सर्वांगीण विकास को परीक्षित करती थीं। साथ ही श्रुति परंपरा में शास्त्रार्थ के जरिए ज्ञान की परीक्षा होती थी। द्रोणाचार्य का पांड़वों की परीक्षा लेना हो या राम की परीक्षा भी समझ और अर्जित ज्ञान का इस्तेमाल व्यवहार की कसौटी पर करने में लिया जाता था। उस समय की परीक्षाएं अंकों, ग्रेड़ों पर आधारित नहीं थीं बल्कि वे परीक्षाएं छात्रों की पठित और स्मृत ज्ञान का व्यावहारिक जीवन में इस्तेमाल पर केंद्रीत हुआ करता था।
समय और समाज की चुनौतियों के आगे परीक्षा की प्रकृति अपना स्वरूप बदलती चली गई। साल का फरवरी-मार्च ख़ासकर 10 वीं और 12 वीं क्लास में पढ़ने वालों की जिंदगी को जीवन-मृत्यु तुल्य दो पाटों में बांट देती है। परीक्षा में बैठने वालों के दिमाग में अभिभावकों और अध्यापकों की ओर से बड़ी चतुराई और ढीठता से ठूंसी जाती है कि यही वो देहरी है जहां से जिंदगी के व्यापक रास्ते खुलते हैं। यदि विफल हुए तो जीवन भर खुद को मांफ नहीं कर पाओगे। न केवल खुद की, बल्कि मां-बाप की आशाओं, उम्मीदों को मटियामेट कर दोगो। परीक्षा देने वाले इन्हीं उम्मीदों, आशाओं और हिदायतों की परतों के साथ विषय की पेचिंदगियों को सहते हुए परीक्षा में बैठते हैं।
परीक्षा को भयावह और मार्केटेबल भी बनाने का चलन देखने में आता है। तकरीबन जनवरी और फरवरी के महिनों में विभिन्न संचार माध्यमों में परीक्षा के बरक्स एक युद्ध सा माहौल बनाया जाता है। परीक्षा न हुआ गोया युद्ध की आशंका से अस्त्र-शस्त्र, तीर-कमान आदि की सफाई संजाई शुरू हो जाती है। उसी तरह से परीक्षा से पहले इतना सोएं, इतना पढ़ें, यह न करें, वह न करें। कोई- कहीं ज्योतिषी तो कहीं मनोचिकित्सक, कहीं डाॅक्टर या फिर विषय विशेषज्ञों के पाचक बांटने तेज हो जाते हैं। बड़ी ही चिंताजनक बात है कि पहले तो अभिभावकों और अध्यापकों की तरफ से पेट में दर्द पैदा की जाती है फिर मर्ज बढ़ाकर चुरनें बांटीं जाती हैं। कितना बेहतर होता कि दर्द ही न पैदा हो इसकी कोशिश की जाती।
कुछ नवाचारी स्कूल हैं मसलन बोध शिक्षा समिति और अरविंद आश्रम में स्थित मिरांबिका जहां किसी भी कक्षा में परीक्षाएं नहीं होतीं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं निकालना चाहिए कि वहां बच्चे कैसे अलगी कक्षा में जाते हैं? तथाकथित सालाना व मासिक परीक्षाएं नहीं होतीं। वहां सतत् मूल्यांकन को अपनाया जाता है। बच्चों की समझ, बौद्धिक स्तर, रूचि आदि के अनुसार विषय पढ़ाए जाते हैं। जिस विषय में बच्चे की जिस स्तर की समझ और क्षमता है उसे उसी स्तर की शिक्षा दी जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो इन स्थानों पर पुस्तकीय ज्ञान को रोचक और गतिविधि से जोड़कर बच्चों के साथ साझा किया जाता है।  
नेशनल करिकूलम फे्रमवर्क 2005 बच्चों को रटे रटाए तथ्यों को यथावत् उत्तर पुस्तिका पर उगलने के खिलाफ अपनी सिफारिशे दे चुकी है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए एनसीइआरटी की किताबें बनाई गईं। उन किताबों में सवालों की प्रकृति को बदला गया। यहां तक कि अध्यापकों की ओर से गतिविधियां कराने की भी गुंजाईश पैदा की गई। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आज भी बच्चे परीक्षा से उतने ही डरते और मरते हैं जितने 2000 के आस-पास अपनी जान दिया करते थे। बल्कि आंकड़े तो घटने की बजाए बढ़े ही हैं। स्कूल स्तर से लेकर काॅलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर दाखिले के लिए छात्रों को परीक्षा के द्वार को पार करने पड़ते हैं। लेकिन जिस संख्या में रिजल्ट से हताश होकर आत्महतया करने की प्रवृत्ति 10 वीं और 12 वीं कक्षाओं में देखी जाती हैं। उतनी अन्य स्तर की परीक्षाओं में नहीं। शिक्षा से संबद्ध विभिन्न निकायों को इस मुहाने को दुरुस्त करना होगा जहां पर हमारे भविष्य के पौध दम तोड़ देते हैं। परीक्षा को डरावनी छवि से निजात दिलाना होगा।

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