Thursday, July 18, 2013

अब लाश उठाएं
जिन बच्चों की जानें गईं वो तो चले गए। आंसुओं से तरबतर आंखों में न खत्म होने वाली उदासी रह गई। मां-बाप बिलबिलाते रहेंगे। राजनीति बतौर जारी रहेगी। आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी चलता रहेगा। कुछ सालों बाद रिपोर्ट आ भी गई तो क्या होना कुछ अन्य लोगों पर कार्यवाई होगी बाकी बेफ्रिक बाहर घूम रहे होंगे।
वैसे देखा जाए तो कितनी भी पंक्तियां लिख दी जाएं उसका न तो सरकार पर असर पड़ने वाला है और न जिन्होंने अपनी औलादें खोई हैं उन्हें सान्त्वना मिलने वाली है। बस इतना जरूर है कि हमें एक आत्मतोष मिलेगा कि हमने अपने स्तर पर कुछ तो किया।
ठीक ही तो है बिल्कुल चुप बैठ जाने से तो बेहतर है रिरियाती आवाज ही सही विरोध के स्वर उठेंगे तो किसी न किसी के कानों में टकराएगी ही। सो मौन की संस्कृति को तोड़ते हुए अपने अपने स्तर पर विरोध और लड़ाई लड़नी ही चाहिए ताकि उन बच्चों के साथ साथ उनके मां-बाप को भी महसूस हो कि वो अकेले नहीं हैं।

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