आप को इक कहानी सुनाता हूँ -
कुछ लोग फूट बौल खेल रहे थे। आस पास बैठे लोग खेल का मजा उठा रहे थे। इक कुछ देर बाद .... फौल फूउल इक आवाज तेज़ होने लगी। किसी को खच समझ नहीं आया आखिर क्या हुवा ? किसी ने कहा क्या हुवा ?
गेंद पैर से छु गया। फौल हुवा न। किसी ने कहा इसमें गलत क्या है। गेंद तो पैर से ही तो खेले जाते हैं। आवाज आई नियम बदल गया। पैर से ही खेलते रहे यह भी कुई बात है। नियम तो बदलना चाहिए। प्रगतिवाद तो यही है। परिवर्तन तो जीवन और प्रकृति का नियम है। तो नियम अभी ही क्यों। बस परिवर्तन के लिए कोई मुहूर्त नहीं होता। यह तो ठीक नहीं।
किसी ने कहा गलत है। चीत है। हाँ है। अगर खेलना है तो खेलो वर्ना रास्ता नापो।
ठीक उसी तरह समाज में भी देखने में आता। लोग इसी तरह अपनी सहूलियत के अनुरूप नियम में तब्दीली क्या करते हैं। पसंद हो तो ठीक नहीं तो उनका क्या बिगड़ सकते हैं। जब चाह तब नियम को अपनी ओर किया और जब दुसरे के लिए फयाद्मंद हो रहा हो तो नियम उसी पल से बदल दिया। है न मजेदार बात।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
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