जीवन तो इक ही मिलता है। उसको या तो अपने शर्तों पर जीयें या किसी के गुलाम हो कर पूरी ज़िन्दगी काट दें। यह पूरा का पूरा हम पर निर्भर करता है। ज़िन्दगी के साथ हम अक्सर प्रयोग करते रहते हैं। कभी सफल होते हैं तो कभी प्रयोग से जिस प्रकार के परिणाम की उम्मीद करते हैं वही हासिल नहीं होता। दरअसल जीवन के साथ गाँधी ने भी प्रयोग किया था। हर कोई प्रयोग करता है। सब के अपने सिध्यन्त होते हैं जिस निकष पर हम अपने जीवन को कसते रहते हैं। जिसने ज़िन्दगी भर झुक कर काटा है वह कभी आवाज , सवाल नहीं कर सकता। क्यौकी जीवन भर उसने सिर्फ आदेश सुना है। उसकी चेतना दब जाती है जो उम्र भर इस शोषित चेतना से उबार नहीं पता।
पालो फ्रेरे ने इस चेतना को शोषित की दमित चेतना नाम दिया है। मान कर चलता है कि उसका जीवन सिर्फ मालिक की सेवा , आदेश और नीचे बैठने के लिए है। इसमें मालिक के दोष को देखने के स्थान पर यह मान बैठता है कि यह इश्वर की येसी ही विधान है। हम कोण होते हैं उसकी तंत्र को चुनौती देने वाले। हमारे बाप दादे भी यही तो करते आये हैं यह तो जन्म जन्म से चला आरहा है।
उत्पदितों की दमित चेतना को बतौर कायम रखने में हमारी शिक्षा, समाजो संस्कृतीत तालीम भी भूमिका निभाती है। समाज में दो किस्म के लोग होते हैं इक वो जो आदेश पाने वाले दुसरे आदेश देने वाले। आदेश देने वाला कभी यह स्वीकार नहीं कर पाटा है उसके नौकर ज़वाब तलब करें। सर नीचे कर के बिना जुबान खोले काम में दुबे रहें। सवाल करने वाले नौकर , चाकर मालिक को पसंद नहीं आते। उनको दर लगता है कि इनकी चेतना जागृत हो गई तो हमारी चाकरी कोण करेगा। इसलिए इन्हें शिक्षा देने के खिलाफ रहते हैं। शिक्षा उनमे जाग्रति पैदा का सकती है। वो अपने अधिकार, आजादी की मांग कर सकता है। इसलिए उनका अशिक्षित रहना ही उनकी तंत्र को महफूज रखते हैं।
जीवन इक ही है इसके साथ प्रयोग करते करते काट देना है या प्रयोग के बाद प्राप्त परिणाम भोगने के लिए कूद को बचा कर रखना है यह हम पर निर्भर करता है।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
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