Tuesday, June 1, 2010

रोटी बिन मौत


कितनी अजीब बात है इक तरफ लोग अपनी थाल में रोटी दाल यूँ ही फेक देते हैं। इक रेस्तरो में बैठ कर बर्गर , पिज्जा के टुकरा बर्बाद कर देते हैं। वहीँ देश में कई लोग हैं जो बिना रोटी के भूखे रात सो जाते हैं। जिनके पेट में अन्न नहीं जाता वो दुनिया से चले जाते हैं। हाल ही में मुझ्फर्नगर के इक गावों में बेटी भूख से बिलबिला कर रात सो गई....

बाप बेचारा अपनी बेटी को रोटी भी नहीं दे सका। सरकार की और से च्लायेजा रहे कार्यक्रम जिसमे रोगी , गरीब बच्चे को खाना, शिक्षा दावा के साथ दियेजाने की घोषणा की जाती है लेकिन इस परिवार को क्या मिला ? मौत और चीर नींद जहाँ से कोई वापस नहीं आता। कितनी विडंबना है कि इक तरफ लोग खा कर बीमार होते हैं वहीँ दूसरी और भूख की मार सहते जीवन से हाथ धो देते हैं।

इसी साल २६ जनवरी को जहाँ दिल्ली में इंडिया गेट पर तमाम लोग जश्न मन रहे थे वहीँ राजस्थान के इक गावों में इक किसान अपनी गरीबी की मार सह रहा था। भूख से चटपटा कर बीवी, बच्चे के संग इस दुनिया को अलविदा कह रहा था। बात किसी इक राज्य की नहीं है बल्कि यह उस देश में घट रहा है जहाँ सुन्दरीकरण के नाम पर पैसे पानी की तरह खर्च हो रहे हैं। विदर्भ की किसानों की मौत भी अब किसी न्यूज़ चंनल के लिए ब्रेअकिंग खबर नहीं बनती। मगर यैसे घटनाएँ हमारे विकास के सुन्दर चेहरे पर इक तमाचा नहीं तो और क्या है।

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुवा,

आज कल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्वा।

दुष्यंत कुमार की ये पंक्ति क्या ही व्यंग मारती है। सही है दिल्ली सब की नहीं सुनती। अगर दिल्ली को सुनानी है तो कोई मंच, कोई आन्दोलन, या कोई और रास्ता पकड़ना पड़ता है। जिसे जिस राह सहज लगता है अपनी काटने लगता है।

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