Thursday, November 6, 2008

अपने ही शहर में

वो अपने ही शहर में चार दिन और चार रात रुका लेकिन अपने घर नही। वो तो रुका रहा देखते हुए सपने जिससे मिलने के लिए तक़रीबन ८०० किलोमीटर का फासला तै कर आया था अपने ही शहर में। लेकिन अपने घर न ही रुका और न ही ख़बर ही थी घर वालों को की उनका बेटा शहर में है। मगर घर पर नही।
कचोट तो उसे भी हुई जब की कैसे हो की अपने घर नही गए ? कमल है कोई इतना करीब हो जाता है इक लड़की के लिए जो घर न जाए ? तब लगा की कुछ तो सच है। वास्तब में कुछ तो उसमे है की वो अपने घर न जा कर सीधे मिलने उससे चल पड़ा था।
रस्ते में क्या कुछ नही मिले सब कुछ वही रस्ते , वही दुकानें, वही सब कुछ मगर इन सब से बेखबर इक ही धुन में बढ़ता उसके घर जा पंहुचा। वो भी इंतजार में थी लेकिन उससे क्या मालूम की ज़नाब अपने घर न जा कर सीधे उससे मिलने आ धमके।
पर हुजुर यही सच है। चार दिन चार रात अपने ही शहर में रहे मगर अगनाबी की तरह। रेल गाड़ी में बैठे तो लगा पिता कह रहे हों बेटा ठीक से जाना, माँ की आखों में आसू पूछती से की क्या तू तो सब कब आता है और कब चलने का वकुत हो जाता है पता ही नही चलता....
सोच में डूबा बिता था तभी माइक पर आवाज गूंजी गाड़ी बस कुछ ही समय में आने वाली है। और रेल पर बैठ गए कब गाड़ी नदी , खेत , स्टेशन को पर करती गुजर गई तब पता चल जब मूंगफली वाला आवाज लगा रहा था टाइम पास टाइम पास।
समय के दरमियाँ वो , रातें , दिन दिन भर सोचना , आजान की आवाज से जागना सब कुछ घूम जाती थीं।









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