Friday, June 22, 2018

सूरज नहीं आता




कौशलेंद्र प्रपन्न 
अब हमारे दरवाज़े और आंगन में सूरज नहीं आता। न तो आंगन में और न ही मुंडेर पर सूरज चढ़ा करता है। कभी वक़्त था जब गर्मियों में सुबह सुबह आंगन और खिड़कियों से कमरों में झांका करता था। नींद ख़ुद ब ख़ुद खुल जाया करती थीं। नींद का क्या है, रात में छत पर सोया करते थे। सुबह चिड़ियों की आवाज़ से या फिर थोड़ी देर चादर तान कर सोते तो अह्ले सुबह सूरज अपनी सेना के साथ छत पर आ धमकते थे। सुबह के साढ़े पांच या छह बजते बजते छत से नीचे उतरना पड़ता। तब सूरज हमारे बेहद करीब हुआ करते थे। सूरज हां वही सूरज जो गर्मियों में निकले की जल्दबाजी होती और शाम देर तक ठहरा करते। कम से कम साढ़े छह और सात बजे तक तो हमारे साथ ही हुआ करते थे। हां तभी गोधूली भी हुआ करती थी। अब न गोधूली रही और न सूरज का इंतज़ार सा रहा। क्योंकि सूरज हमारे आंगन, छत, दहलीज़ से दूर जा चुके हैं। 
हम जहां हैं जहां हमारा घर हुआ करता है। ठीक उसके सामने ऊंची इमारत बन चुकी है। इतनी ऊंची की सूरज को भी ढल लिया है। न तो सुबह सूरज नज़र आता है और न धूप ही आया करती है। कभी मां होती थी तो वो सुबह नहा धोकर जलार्पण किया करती थी। रसोई में जाने से पहले नहा लेती और एक लोटनी पानी सूरज बाबा को चढ़ाकर फिर रसोई का काम करती। अब न सूरज हमारे घर के पास रहे और न उनकी रोशनी हमें मयस्सर है। जब से हमारे घर के सामने हमारे घर के समानांतर ऊंची इमारत बन चुकी है तब से सूरज का बेधड़क आना-जाना रूक सा गया है। बस घर ने निकलने के बाद गली में या फिर सड़क पर आने के बाद सूरज से रू ब रू होता है। कोई और वज़ह नहीं बस यूं ही सूरज को देखकर आंखें मूंद लिया करता हूं। आंखें बंद कर मांफी भी मांग लिया करता हूं कि हमारी ही गलती की वज़ह से अब आपसे हमारी सुबह का प्रणामपाती नहीं हो पाता। आपके और मेरे बीच ऊंची -ऊंची इमारतें खड़ी हो गई हैं। जिनकी वज़ह से हमारे सीधे मुलाकात टल सी गई है। 
यह सिर्फ मेरी या आपकी स्थिति नहीं बल्कि कम से कम महानगरों में रहने वाले हज़ारों लोगों की दास्तां है जिसमें सूरज देखते ही देखते गायब होते जा रहे हैं। उसपर तुर्रा यह कि जैसे जैसे हमारी कॉलोनी, मुहल्ले में पुराने मकान टूट कर बिल्डर के हाथों सौंपे जा रहे हैं उसमें छोटे घरों पर संकट से आ गए हैं। जो घर बीस तीस साल पुराने हो चुके हैं और घरवालों के पास पैसे हैं तो वे घर ख़तरे में हैं। अब छोटे घरों का चलन खत्म होता जा रहा है। घर हो तो पांचख् छह मंजिल का तो होना ही चाहिए। बिल्डर बनाकर अपने लिए एक फ्लारे ले लेता है और आपके सिर पर एक किरायदार बैठा देता है। आप न चाहते हुए भी एक पराए परिवार को अपने सिर पर पनाह देते हैं। यदि खरीदने की ताकत है तो आप ऐसा होने से रोक सकते हैं। लेकिन अमूमन होता नहीं है। 
अभी सूरज को पीछे धकेलने का काम महानगरों, सेकेंड और थर्ड टियर वाले शहरों में बिल्डर कल्चर शुरू हो चुका है। जहां पुराने घरों को तोड़कर नई नई ऊंची- ऊंची इमारतों को जनमा जा रहा है। ऐसे में कई बार लगता है कि लोगां को अपने पुराने मकान कोई लगाव ही न रहा। कभी मां-बाप जिस मुश्किल हालात में घर में कमरे, दुछत्ती, सीढ़ियां जोड़करते थे। उसमें वे स्वयं कई बार ईट तोड़ने, रेत लाने का काम भी कर लिया करते थे। एक एक दीवार में घर के हर सदस्य का योगदान हुआ करता था। ऐसे में यदि एक भी ईट तोड़ने की या बेचने की बात आती तो मां-बाप पहले खड़े हो जाते कि यह मैंने ख़ून पसीने की कमाई से बनाई है कम से कम मेरे जीते जी तो इसे न तो बेच सकते हैं और न तोड़ सकते हैं। लेकिन पुराने लोग जैसे जैसे हमारे बीच से खिसकते गए वैसे वैसे पुराने मकानों को तोड़कर ऊंची इमारतों को तवज्जो दिया जाने लगा। कभी वक़्त तो यह भी था कि एक घर में जिसमें दो से तीन कमरे हुआ करते थे लेकिन उसमें रहने वाले पांच-छह सदस्य होते थे। सब के सब ख्ुश और प्रसन्न। किसी को भी अगल से कमरे का दरकार नहीं होता। वक्त़ ने करवट ली और आज ऊंची इमारतों में पांच-छह कमरे होते हैं लेकिन रहने वाले वही दो या तीन। यदि उदार हुए तो जब तक ज़िंदा हैं मां-बाप रह लिया करते हैं। उसके बाद बच जाते हैं बस मां-बाप। बच्चे बड़े होते ही अपनी राह ले लेते हैं। ऐसे में पांच-छह कमरे यूं ही ढन ढन तवाते रहते हैं। रहने वालों के इंतज़ार में कमरे की साफ सफाई भी कठिन लगने लगता है। 

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