Tuesday, June 19, 2018

फाईल की गति, अधिकारी ही जानें




 कौशलेंद्र प्रपन्न
कभी हरिशंकर परसाई ने एक कहानी लिखी थी ‘‘ भोलाराम का जीव’’ यह कहानी बड़ी शिद्दत से सरकारी दफ्तर में फाईलों की गति, दशा-दिशा का चित्रण करती है। एक भोलाराम की फाईल कहीं किसी बंड़ल में दब जाती है। उस फाईल की तलाश में यमराज भी धरा धरती पर आते हैं भोलाराम की आत्मा ले जाने। जो भी हो यमराज को भी सरकारी दफ्तर में हज़ारों चक्कर काटने पड़ते हैं। वहीं फाईल पर वोट होना चाहिए जैसे शब्दों और वाक्यों सुनकर वो अपना वाद्ययंत्र रख देते हैं। दफ्तर के बाबू कहते हैं वेट होना चाहिए वोट समझे। इस कहानी को जब भी पढ़ें लगता है आज की ही कहानी कही जा रही है। फाईलों की भी अपनी अपनी किस्मत होती है। कोई कोई फाईल तो समय से चला करती हैं। उनमें कोई दिक्कत नहीं आती। मुकम्म्ल टिप्पणी के साथ फरियादी तक पहुंच जाती हैं। लेकिन ऐसी भी दुर्भागी फाईलें होती हैं जिन्हें इस टेबल से उस टेबल तक सुस्ताना पड़ता है।
हर फाईल को एक नाम यानी नंबर दिया जाता है। जिसे नंबर या डिपाटमेंट्स के नाम से पुकारा जाता है। किस विभाग की फाईल है। कौन इसका अधिकारी है, कौन इसपर एक्शन लेगा यह सब तय होता है। लेकिन कई बार वोट कम होने। सही व्यक्ति की पहचान के बगैर वे फाईलें कहीं किसी टेबल पर हज़ारों फाईलों में दब जाती हैं। जब कोई सुध लेने वाला आता है तब से काफी माथा पच्ची करनी पड़ती है कि फलां फाईल की मूवमेंट क्या है, कहां है? कौन तलाश करेगा। वो भी जब उस फाईल का क्रिएटर लंबी छुट्टी पर चला जाए तो यह एक अगल कहानी बन जाती है।
भला हो डिजिटल युग का कि धीरे धीरे हमारे काग़जात डिजिटल फार्म में तब्दील हो रहे हैं। ऐसे में फाईलों के लोकेशन पता करना ज़्यादा कठिन नहीं है। तकनीक भाषा में आप इसे रिट्रीवल सिस्टम के नाम से पुकार सकते हैं। अगर फाईलों को सही लोकेशन पर रखी जाए तो वे पाथ वे स्टोरेज की तलाश की जा सकती है। लेकिन यदि फाईलों को बेतरतीब से रखी गई हो तो मजाल है आप निकाल पाएं।
डिजिटलाइजेशन ने कम से कम पुराने दस्तावेज़ों, किताबों, पांडुलिपियों आदि को संरक्षित करने, सुरक्षित रखने और करने में मददगार साबित हो रही हैं। लेकिन दो दुनिया समानांतर चल रही हैं। ख़ासकर सरकारी ऑफिस में। यहा अभी भी नीले रंग के हाशिए वाले पन्नों पर टिप्पणियां लिखी जाती हैं। टिप्पणियां तय करती हैं कि फाईल समय पर सही व्यक्ति तक पहुंच जाएगी। टिप्पणियों के लेखक यानी अधिकारियों की भाषा भी नायाब होती है। जानकार बताते हैं कि अधिकारी ऐसी भाषा का प्रयोग करते हैं जिनके बहुआयामी अर्थ होते हैं। इतने अस्पष्ट की कितनी भी बुद्धि लगा ली जाए आम व्यक्ति उसके मायने नहीं समझ सकता। जब फाईल को पास नहीं करना हो तो ऐसी ही घुमावदार भाषा का इस्तमाल अधिकारी करते हैं। ऐसे ऐसे कमेंट लिख देंगे कि उसकी भाषा बाबूजन भी समझ पाते हैं। उस भाषा को डिकोड करने के लिए बाबुओं की मदद लेनी पड़ती है।
ऐसे ही एक फाईल की गति और दिशा-दशा जानने के लिए पिछले दिनों पूर्वी दिल्ली नगर निगम और दक्षिणी दिल्ली नगर निगम के दफ्तर का चक्कर काटना हुआ। फाईल की मूवमेंट ही पता नहीं चल पा रहा है। फाईल आख़िरकार हैं कहां? कौन उस फाईल को बपौती मान कर दबाए बैठा है? आदि। उस फाईल के पेट पर कई सारी आधिकारिक भाषा में कमेंट लिखे गए थे। जिस हम आमबुद्धि वाला व्यक्ति शायद समझ न पाए। बाद में वहीं के एक अधिकारी ने समझने में मदद की कि आपकी फाईल फलां साहब के पास है। वे जैसी टिप्पणियां लिखा करते हैं उसे सिर्फ वही समझते हैं। फिर भी कोशिश कर लें शायद अब उनका मूड अच्छा हो। वैसे फाईल निकलवानी हो या काम कराना हो तो दो हज़ार उन्नीस दिसंबर का इंतज़ार करें। मतलब समझाया वो दिसंबर में रिटायर हो रहे हैं।
फाईलों की गति, भाग्य को बांचना इतना भी आसान नहीं होता। बड़े बड़े गुणीजन भी चक्कर खा जाते हैं। हलांकि हरिशंकर परसाई जी ने बड़ी बारीक नज़र से फाईलों के भाग्य को बांचने की कोशिश की है ‘‘ भोलाराम का जीव’’ में। इसे पढ़ना दरअसल फाईलों की गति और सरकारी दफ्तर की कार्यप्रणाली का समझ विकसित करना ही है।

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