Thursday, June 28, 2018

आग में जलें मगर...




कौशलेंद्र प्रपन्न
जलना अच्छा है। जलन न तो हो हम शायद ठहर जाते हैं। शायद कुछ समय के बाद मरने से लगते हैं। भौतिक मौत नहीं होती बल्कि हमारी गति, विकास, प्रगति ठहर सी जाती है। मनुष्य हैं जो स्वभावतः जलन आ ही जाती है। हम जलते हैं किसी की प्रगति से। किसी की संपदा से। हम जलते हैं किसी की दो गज़ जमीन से। यदि हम कम जलते हैं तो किसी की ज्ञान संपदा से। ज्ञान के लिए जलना, ज्ञान व समझ हासिल करने के लिए जलना कहीं न कहीं हमें आगे बढ़ने में मदद करता है। मगर हमें जिन चीजों से जलना चाहिए उससे नहीं जलते। जलते हैं तो उन चीजों से जो अस्थिई होती हैं। किसी की नई कार से जलने लगते हैं। दूसरे की कार को देखकर अपने आपे से बाहर जाकर लोन लेकर भी समानांतर कार ख़रीद लेते हैं। दूसरे के प्रतिभावान बच्चे से जलने लगते हैं और अपने बच्चे को कोचने लगते हैं। बच्चा का जीना दुभर कर देते हैं। जलन यदि न हो तो हमारी जिं़दगी में एक ठहर सी आ सकती है।
कभी हमारे ऋषि-मुनि दूसरों के तप, योग,साधना आदि से जलते थे। ईर्ष्या उनमें भी होती थी। मगर वह जलन उन्हें और और तपस्या करने, ज्ञान, साधना हासिल करने के लिए प्रेरित करती थीं। वहीं दूसरी ओर असुर शक्तियां ़ऋषियों की तपस्या से जलते थे। क्योंकि वे उस स्तर की साधना नहीं कर पाते थे इसलिए उनकी तपस्या में बाधा पैदा किया करते थे। पूरा का पूरा आर्ष ग्रंर्थ ऐसे उदाहरणों से भरे हुए हैं।
आम जिं़दगी में झांक कर देखें तो हमारी अधिकांश ऊर्जा, ताकत, श्रम आदि दूसरों से प्रतिस्पर्धा में गुज़र जाती है। हालांकि स्वस्थ प्रतिस्पर्धा ग़लत नहीं है इससे कहीं न कहीं हमें आगे बढ़ने, विकसने में मदद करती है। मगर जब प्रतिस्पर्धा सिर्फ और सिर्फ जलन में तब्दील हो जाए तो वह हमारी ही ऊर्जा, और इच्छा शक्ति को खत्म करने लगती है। हम अंदर से खोखले होने लगते हैं। कई बार हमें ख़ुद महसूस नहीं हो पाता कि हम अंदर से कितने जल भुन कर राख हो चुके हैं। जिन वज़हों व जिनकी वजह से जल रहे थे उसकी गति और प्रगति में कोई अंतर नहीं आया बल्कि हम उस जलन में धीरे धीरे बुझते जा रहे हैं। ज्ञान और सूचना आज की तारीख में सबसे बड़ी ताकत है। यदि किसी ने ज्ञान और  सूचना-तकनीक को साध लिया तो मानना चाहिए कि उसके पास हज़ारों हज़ारा हॉर्स पावर की ताकत है।
मानवीय स्वभाव में प्रेम, ईर्ष्या, डाह,क्रोध आदि तो मिले हैं लेकिन ये भाव स्थायी नहीं हैं। इन्हें सश्रम व प्रयास के ज़रिए साधा भी जा सकता है। यह इतना भी कठिन नहीं है कि इसपर जीत न हासिल की जा सके। कई बार हमारा स्वभाव परआलोचना जिसे दूसरों की निंदा के नाम से भी पुकार सकते हैं, उसमें इतना रस मिलने लगता है कि हम अपनी गति, अपना स्वभाव उससे संचालित करने लगते हैं। आप जिससे जल रहे हैं उसे कई बार इसबारे में जानकारी तक नहीं होती और आप हैं कि उनकी चिंता, जलन में न रात सोते हैं और न दिन में चैन की नींद ले पाते हैं।
यदि जलन सात्विक हो तो इससे आर्ष ग्रंर्थों में भी साराहा गया है। सात्विक जलन मनुष्य को आगे बढ़ने और जीवन में आगे बढ़ने के लिए उत्प्रेरित करता है। लेकिन जब वही जलन हमारी आंतरिक दुनिया को संचालित करने लगे। हमारे स्वभाव को निर्धारक बन बैठे तब हमारी वास्तविक गति, प्रगति और विकास बाधित होने लगती है। किसी की प्रगति या प्रोन्नति से जलना कैसे और क्यों? क्या इसलिए कि कभी वह हमारी ही स्थिति में हुआ करता था। क्या इसलिए कि आज वह अपने श्रम और ज्ञान की वजह से अब हमारे बीच का नहीं रहा आदि। जलना ही है तो उसकी प्रगति और विकास की प्रक्रिया को अपनाने के लिए होनी चाहिए। जलन इसबात के लिए महसूस हो कि मैं कैसे उसकी गति को हासिल कर सकता हूं। जलन इस बात की हो और आगे की रणनीति बनाने के लिए हो कि हम कैसे बेहतर हो सकते हैं।
आज की तारीख में हमारा अधिकांश श्रम और समय सिर्फ तुलना कर जलन में जाया हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो दूसरों के विकास से तो हमें खुश होना चाहिए कि फलां ने आज वह मकाम हासिल की है। हम कैसे वहां तक पहुंच सकते हैं व कैसे अपनी जिं़दगी को और बेहतर बना सकते हैं। आग का बुझ जाना गति का शांत होना ही तो है। जब हमारे अंदर की आग धीमी होने लगती है तब हम धीरे धीरे मरने से लगते हैं। यदि हमें जिं़दा रहना है तो आग को जिं़दा रखना है। जलन को बचाकर रखना है। बस ज़रूरत इस बात को ध्यान में रखने की है कि उस जलन की प्रकृति दूसरों के विकास से डाह के रूप में न हो बल्कि आत्म विकास के लिए हो भी हो। 


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