Friday, January 22, 2016

मुर्दे संवाद कर सकते हैं वाया मुर्दे इतिहास नहीं लिखते



कौशलेंद्र प्रपन्न
अलका अग्रवाल सिग्तिया जी की कहानी संग्रह का शीर्षक सुन-पढ़कर कुछ देर के लिए ताज्जुब हो सकता है कि यह भी काई नाम है ‘मुर्दे इतिहास नहीं लिखते...’। लेकिन सच है जब हम इसी नाम से लिखी कहानी पढ़ते हैं तब महसूस होता है कि सच ही तो है मुर्दे इतिहास कैसे लिखा सकते हैं? बतौर कहानी के अंत में पात्र द्वारा लिखी कविता मौजूं है कि
मुर्दे कभी इतिहास नहीं लिखते
इतिहास वो लिखते हैं
जो अपने कदमों से, अपने रास्ते,
खुद बनाते हैं।
जो भीड़ के साथ न चल कर
अकेले चलने की जोखिम उठाते हैं।
इतिहास वो लिखते हैं,
जो जिंदगी और मौत से
बराबर मोहब्बत करते हैं।
उक्त पंक्ति मुर्दे इतिहास नहीं लिखते कहानी की है। जिसमें मुंबई की चकाचक भरी रोशनी वाले शहर में उम्मीदों वाली, नगरी में हर कोई अपने भाग्य आजमाने आते हैं। लेकिन सफलता और प्रसिद्धी किसी किसी को ही मिला करती है। इस कहानी की ख़ासियत यह है कि एक कस्बे व शहर से आए दो कबीर और आदित्य युवक अपने भाग्य को सिनेमा की दुनिया में स्थापित करने आए हैं। उनकी आंखें भी सपनों से भरी हैं। उनके पास भी एक गठरी है जिसमें तमाम फिल्मी सपने ठूंसे हुए हैं। लेकिन अफसोसनाक बात है कि छोटे मोटे रोल तो मिल पाए लेकिन उसके लिए जिस तरह की भाषा, व्यवहार उन्हें सहने पड़े वे खटकते हैं। प्रोड्यूसर किस तरह से पूछता है ‘कोई गर्ल फ्रेंड है तुम्हारी...? गर्ल फ्रेंड नहीं तो... यह नहीं तो आगे कहानी में प्याज की तरह परते खुलती बताती हैं कि तो बहन को ही लेकर आ जाओ। जिस दिन गर्ल फ्रेंड हो...आ जाना...’
इन वाक्यों को सुनता सहता कबीर और आदित्य की कहानी तो बताती ही है साथ ही लेखिका ऐसे हजारों घटनाओं की ओर संकेत कर कथाकार अलका जी आगे बढ़ जाती हंै। इस कहानी में संवाद बेहद मारक और परिवेश से मेल खाते हैं। मुंबईया हिन्दी की पूरी छौंक इस कहानी मंे अनुगूंजित होती है। ‘अपुन को। टपोरी। जास्ती सवाल नहीं बस तू चल अपुन के साथ।’ हालात व्यक्ति से क्या नहीं करने पर मजबूर किया करती हैं यह भी परिस्थितिजन्य घटनाओं की ओर इशारा करती है। आखिरकार एक प्रोड्यूसरनुमा आदमी मिलता है जो कहता है कि जिगोलो बन कर मेरी बीवी और वैसी ही अन्यों के साथ कमाई कर, क्योंकि मेरी बीवी को रेाज एक नए नए लड़के चाहिए आदि। वह इस तोल मोल के बोल में अभी पगा नहीं था। लेकिन आदित्य और कबीर तो बस कथाकारा अलका की नजर में वह व्यवस्थागत और प्रोफेशन की गंदगी के कंधे पर सवार हैं जिस पर तथाकथित फिल्मी दुनिया की ऐसी कहानियां सुनी और लिखी जाती हैं। कितना सच है यह तो इस दुनिया के निवासी ही जानें। लेकिन एक नायिका ने हाल ही में कबूल किया है कि फिल्मी करियर की शुरुआती सयम में उसके साथ बाप की उम्र का व्यक्ति इस्तमाल करना चाहता था, प्रसिद्धी दिला देता। मालूम नहीं यह बयां कितनी सच्ची और हकीकत के करीब है लेकिन लोगों के तजार्बा तो इस कहानी के ख़ासा करीब बैठती है।
वहीं इस कहानी संग्रह की दूसरी कहानी ‘नदी अभी सूखी नहीं’ इस कहानी को पढ़ते हुए यकायक हम 1992 और 1984 के काल खंड़ में जा पहुंचते हैं। शायद कहानियां और साहित्य की अन्य विधाओं की यही विशेषता होती हैं कि वे अपने साथ काल की दीवार गिरा कर अतीत में पहुंचा देती हैं। तत्कालीन दर्द, पीड़ा, प्रेम, राजनीतिक, सामाजिक परिघटनाएं पाठकों की आंखों के आगे घिरनी की तरह नाचने लगती हैं। अलका जी की कहानी नदी अभी सूखी नहीं दरअसल एक ऐतिहासिक घटना के बाद के मंजर की ओर पाठकों को खींचकर ले जाती है। किस तरह से 1992 के पूर्व मुंबई के किसी काॅलोनी के सातवें माले पर रहनी वाली रचना, नाजि़मा, लांबा आंटी तीन परिवारों में मिलजुल है। एक दूसरे घर में ही पले बढ़े हैं। लेकिन कुछ तो हुआ कि नाजि़मा के विश्वास में दरार आई 1992 के बाद। क्या वजह रही कि दिल्ली में लांबी आंटी की बेटी काव्या और उसके दूधमुंहे काका को कुछ लोग ंिजंदा मार डालते हैं। कहीं न कहीं मानवता हारी। कहीं न कहीं विश्वासों का कत्ल हुआ। यही वजह है कि सिख और हिन्दू के तौर पर फिर सातवें माले के तीन परिवारों में बीच फांक पड़ जाता है। एक दूराव तो तब भी आता है जब रचना की सास आती हैं। साथ रहती हैं। उन्हें नहीं पसंद कि नाजि़मा के घर से इतनी गहरी दोस्ती रहे। आखि़रकार मुसलमान हैं। हम हिन्दू। ईद से पहले परिवारों में मनमुटाव हो जाता है। लेकिन कथाकारा बड़ी ही चतुराई से सास को रिश्तेदार के घर भेज कर आपसी खटरास को स्नेहीलता में तब्दील कर देती हैं। लेकिन कहानी यहीं नहीं रूकती। अचानक सास का आना पूरे माहौल में एक तनातनी पसर जाती है। लेकिन इस बार सास का मन परिवर्तित हो चुका है। स्वयं ईद की सेवइयां खाती हैं और मुबारकवाद देती हैं। लेकिन कथाकारा जिस ओर पाठक को लेकर चलना चाहती हैं वो इसमें सफल होती हैं। एक हिन्दू परिवार कैसे सिख और मुसलमान परिवार की हिफाज़त करता है इसे बड़ी शिद्दत से अलका इस कहानी में उभारती हैं संवाद लेखन मंे तो अलका जी बाजी मार ले जाती हैं। इनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषताओं में से एक संवाद सृजन है। बड़ी ही साफगोई से और स्पष्टता के साथ परिवेश और सांस्कृतिक बुनावटों को ध्यान में रखते हुए संवाद की सृजना करती हैं। यह कहानी संतति को आगे बढ़ाते हुए बल्कि कहें समाज में बहुभाषी बहुधर्मी परिवारों के बीच स्नेह का संचार करती हुई एक उजले पक्ष को आगे बढ़ाती है।
यदि पाठक अमसा कहानी पढ़ेंगे तो निश्चित ही उन्हें प्रो कृष्ण कुमार की किताब चूड़ी बाजार में लड़की की कहानी से जोड़ देगी। एक ओर जहां शिक्षाविद् कथाकार प्रो कृष्ण कुुमार चूड़़ी बाजार में लड़की किताब में फिरोजाबाद की चूड़ी बाजार में काम करने वाली लड़कियों, लड़कों की दर्दनाक रोज़नामचा लिखते हुए आंसूपूरित कहानी बयां करते हैं। वहीं अलका जी की कहानी अमसा भी उसी भाव भूमि पर खड़ी दिखाई देती है। यह वही अमसा है जो किसी भी शहर, नगर और महानगर के चैराहों पर गुलाब, जामुन, फूल और कलम बेचते मिल जाएंगी। यह कहते हुए भी मिलेंगी कि बाबू जी एक कलम ले लो सुबह से कुछ भी नहीं खाया। रेाटी खा लूंगा या खा लूंगी। लेकिन अमसा एक ख़ास ठसक के साथ मना करती है कि हम भीख नहीं लेते जिज्जी...। हां, यहिंन रहते हैं और नाम है अमसा। जब कथाकारा अपने पात्र से पूछवाती है कि यह भी कोई नाम हुआ तो अमसा के संवाद उसी के परिवेश के हैं। मसलन
‘ अरे! हमका खुदई नईं मालूम हुआ कि जहां दद्दा भट्टे में पहले काम करत रहे, वहीं के कोई बाबूजी बताए रहे अन्सा, बन्सा कुछ। कथाकारा इस कहानी मंे दो ऐसे पात्रों को लेकर आती है जिसमें से अमसा की जिंदगी को देख कर द्रवित हो जाती है और कहानी लिखना चाहती है। वहीं दूसरी हैं जिन्हें अपने डिजर्टेशन के लिए कच्चा माल नजर आती है अमसा। अंततः अमसा को भी टीबी की बीमारी घेर लेती है। प्रो कृष्ण कुमार जिस ओर बड़ी शिद्दत से चूड़ी बाजार में लड़की में चचा करते हैं कि यहां बच्चे बड़े ही नहीं होते। सीधे बढ़े हो जाते हैं। उन्हें टीबी की बीमारी तो गोया पुश्तैनी मिला करती है। उसी तर्ज पर अमसा को भी यह बीमारी घेर लेती है। अमसा की एक बहन भी भी जो ठेकेदारों की नजर में संुदर पतुरिया है। हर वक्त वहां अपनी अस्मिता और शरीर को बचाए रखने के लिए एक युद्ध लड़ना पड़ता है। लिखने वाले ने अपनी डिजर्टेशन भी कर ली। और कहानी भी लिखी गई लेकिन अमसा की हालत बिगड़ती चली गई। कहानी का अंत दिलचस्प है कि पहली वाली पात्र मां के संवाद में आ जाती है कि तू अपना करियर देख और घूमने जा रही है जा। विनी अमसा को घर बुलाती है कि वो डाक्टर के पास लेकर जाएगी। मां कहती है कौन  विनी तूने किसी बुलाया है? कौन है ये विनी लड़की, कितनी गंदी और बीमार लग रही है, मुझे ऐसे लोगों से मेलजोल पसंद नहीं...।
और अमसा इस दरवाजे से दूर चली जाती है। एक अंतहीन यात्रा की ओर बस कथाकारा ने लिख दिया ...दूर एक पतली सी काया धीरे धीरे गुम होती दिखाई दे रही थी। कहानी को जहां जिस मुहाने पर छोड़ना था इसकी बेहद बारीक समझ अलका जी के पास है। जैसा कि पहले भी ध्यान खींचने की कोशिश की गई है कथोपकथन यानी संवादों का घातबलाघात कहानी को न केवल रोचक बनाती है बल्कि कहानी की कई सारी परते कई सारी गांठें भी खुलती चली जाती हैं।
मुर्दे इतिहास नहीं लिखते कहानी की जान कहें तो इसका संवाद और संवादों के जरिए कहानी संसार की रचना है। संवादों की बहुलता कभी भी पाठकों को परेशान नहीं करती बल्कि पाठकों की रूचि कहानी पढ़ने में जगती है। ऐसी ही एक और कहानी की चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा वह है सिलवटें जिंदगी की। इस कहानी के संवाद भी दिलचस्प हैं एक गैर हिन्दी भाषा बंगाली पात्र की हिन्दी कैसी होगी इसकी झलक इस कहानी की शुरुआती पंक्तियों में मिलती है। जैसे घड़ी कैसे चलता है। अगर दीन ही दीन रहेगा तो सब कुछ डिस्टर्ब हो जाएगा। दिन पढ़ा जाए। वैसे ही मूझिक, म्यूजिक सूर सुर रीदम रिदम आदि शब्द ऐसे हैं जो सीधे सीधे पाठकों को पात्रों की भाषायी संसार को समझने में मदद करती है। अलका जी की विशेषता यह भी है कि इनकी कहानियों में पात्र और परिवेश जहां से आते हैं वहीं से अपनी भाषायी गठरी भी साथ ही लेकर आते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो मुर्दे इतिहास नहीं लिखते अपने संवादों के लिए भी जाना जाएगा।
यदि कहानियों की बुनावट पर नजर डालें तो पाएंगे कि हमारे इसी समाज और परिवार की कहानियंा हैं। एक ओर संभव है इस संग्रह की छोटी कहानी बुलबुला! है जो अतीतजीवी कथा भूमि पर खड़ी है। वहीं जब अरिूष कहेंगीकृकहानी है जिसमें लड़की दो स्तरों पर संघर्ष करती है। पहला अपने ही घर मंे बेटा बेटी के बीच भेद के दंश को सहती है। सुनती है कि पराई अमानत है। ज्यादा पढ़ लिख कर क्या करेगी। उसे काॅलेज की नौकरी नहीं करने दी जाती। एक मासलदार ऐसे परिवार में बिजनेस करने वाले लड़के से कर दी जाती है। जो अपनी मां का मन रखने के लिए शादी करता है। जबकि उसकी अपन जिंदगी कोई और है। स्पष्ट कहता है वो मेरी जिंदगी है। तुम से शादी महज मां के कहने पर की है। उधर मां को भी सारा माजरा मालूम है। बस टूटती तो लड़की है। टूटते उसके सपने हैं। गरीब परिवार की बेटी लाने के पीछे लड़के वालों की मनसा मुंह बंद करोन का था। और होता भी यही है। लेकिन जैसा कि अमूमन घरों की कहानी होती है। शादी के बाद घर पर भाभियों की चला करती हैं। वही मंजर इस कहानी में देखी जा सकती है।
इस संग्रह की पहली कहानी बेटी कई कोणों से पढ़ने जाने की मांग करती है। यह कहानी हालांकि कोई नई जमीन पर तो नहीं खड़ी है लेकिन कहानी कहने का कौशल दिलचस्प है। बेटी के होने और उसे बड़ा करते करते कैसे मां बाप अपने सपनों को बड़ा किया करत हैं इसकी झांकी इस कहानी में मिलती है। साथ ही बेटी की शादी और विदाई के बाद स्थितियां अमूमन हर घर सी हो जाती है। बेटी को ससुराल से पीहर नहीं भेजा जाता। बार बार चिट्ठी, फोन के बावजूद भी ससुराल वाले बहु को घर नहीं भेजते। ऐसे मां की हालत और पिता पर क्या गुजरती होगी। अंत में जब बेटी घर आती है और गले लग कर रोती है तब हां तब मां को महसूस होता है कि कुछ है जो मेरी बेटी के साथ ठीक नहीं हो रहा है। बेटी वापस ससुराल नहीं जाना चाहती। लेकिन यहां समाज और लोक लाज सामने खड़ा हो जाता है। अंततः बेटी को दुबारा उसी घर में वापस जाना ही पड़ता है।
समग्रता में कहें तो अलका जी के पास न केवल कहानी कहने की भाषा है बल्कि उनके पास कहानी सुनने की शैली भी है। उन्होंने हर कहानी में बेहतरीन संवाद रचे हैं। संवाद को लेकर पहले भी कहा जा चुका है कि कथाकारा अलका जी ज़रा सी भी लापरवाही नहीं बरततीं। अलका जी ने कहानियों निश्चित ही विभिन्न भाव- दशाओं, मनो भाविक और समाजो सांस्कृतिक पहलुओं को बांधने और बयां करने की कोशिश की हैं। इसमें दरमियां उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं को भी टटोलती और उसके असर को पाठकों के मध्य विमर्श के लिए रखती हैं।
उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में हमें अलका अग्रवाल और भी बेहतरीन कहानियों से रू ब रू कराएंगी।


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