Thursday, January 14, 2016

उत्तर पुस्तक लोकार्पण


कौशलेंद्र प्रपन्न
बहिन तेरा भाग्य अच्छा है। भाग्य की चांड़ हो तुम। तुम्हारे तो दिन बिहुर गए। कम से कम लोगों ने तुम्हारे कवर तो खोला। मंच पर सरेआम लेखक,कविओं ने सराहा। अब तो किताबो तुम सर्र सर्र निकल पड़ी। एक हमारा भाग्य है कि हम आलमारियों पर पड़ी पड़ी अपनी पारी का इंतजार करते दिन कटेंगे। या फिर स्टाॅक चेकिंग होगी तब हमारे कवर को सहलाए जाएंगे। उत्सुक हो कर शिशु ने पूछा फिर क्या होगा उसके बाद...याद नहीं किसी प्रसिद्ध कवि की कविता की पंक्तियां हैं। लेकिन यहां प्रासंगिक लग रहा है। विश्वपुस्तक मेले में पुस्तकों के लोकार्पण के बाद उनका क्या भविष्य है? क्या लोकार्पण के बाद उन किताबों के पाठकों मंे अचानक बहुत उछाल आ जाएंगे?क्या लेखक रातों रात बेस्ट सेलर राईटर बन जाएगा? आदि। उत्तर विश्वपुस्तक मेले के बाद लेखक,प्रकाशक, पाठक अपने अपने घरों मंे लौट जाएंगे। कुछ के चक्कर लगेंगे कि किसी भी तरह उनकी किताब की समीक्षा,आलोचना,किसी अखबार,पत्रिका आदि में छप जाए। इसके लिए संपादकों,मित्रों की चिरौरी का दौर शुरू होगा। जो चूक जाएंगे वो किसी और जुगाड़ में लगेंगे। किसी ने किसी तरह से अपनी किताब की बिक्री बढ़े इसको लेकर ज्यादा उत्साह और प्रयास लेखक की ओर कम ही देखे जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा लेखक यह तो वायदा करता है कि फलां फलां संस्थान की लाईब्रेरी में कुछ काॅपियां खमा देगा। विचार करने की बात है कि कितनी ही ऐसी किताबें लाईब्रेरी की आलमारी में सचमुच सजी ही रह जाती हैं। उन्हें उठा कर पढ़ने वाले पाठकों की संख्या बेहद चिंताजनक होती है। आज का पाठक भी सूचना तकनीक में बदल चुका है। आज किताबों के पन्ने पलटने से ज्यादा टच फोन के पटल पर अंगुलियां फिराना ज्यादा पसंद करते हैं।
पुस्तक मेला हो या आम दिनों में पुस्तकों का लोकार्पण, बहुत ही आम ओ खास घटना होती है। किताबों को कैसे प्रमोट किया जाए इसको लेकर प्रकाशन जगत में रेाजदिन नई नई रणनीतियां बनाई जाती हैं और उसे अमल में लाई ला रही हैं। अपेक्षा तो लेखक से भी होता है कि वो भी किताबों को बिकवाने में अपनी भूमिका निभाए। लेखक अपनी किताब की बिक्री बढ़ाने में अपने परिचय सूत्रों का इस्तमाल किया करते हंै। विभिन्न संस्थानों के साथ ही अखबारों,पत्रिकाओं के दफ्तरों में संपादकों तक अपनी किताब की समीक्षा के लिए जोड़ तोड़ करते हैं। अफसोसनाक बात यह है कि कई बार लेखक अपनी कमतर किताब यानी रचना की समीक्षा कराने में शिष्ट रास्ते का प्रयोग नहीं करता। तरह तरह के गठजोड़ और समझौते भी किया करता है। एक बार समीक्षा छप गई फिर उसकी भी मार्केंटिंग की जिम्मेदारी लेखक पर ही होती है। गौरतलब बात यह है कि जो लेखक इन प्रपंचों में दक्ष नहीं हैं, पहली बात तो उनकी किताब छपने की श्रेणी तक हासिल नहीं कर पाती। यदि छप भी गई तो उनकी रचना गुमनामी की अंधेरी गलियों में खो जाती हैं। क्योंकि वे अपनी किताब को प्रमोट करने और कराने में विश्वास नहीं करते। बल्कि उनकी प्रतिबद्धता सिर्फ और सिर्फ लिखने तक महदूद होती है। ऐसे लेखक ताउम्र लिखते रहते हैं लेकिन छपने से दूर ही रहते हैं। ऐसे लेखकों को बार बार दोस्त साथी, परिचित उत्प्रेरित करते हैं कि साहब लिखते हैं तो वो छपे भी। पाठक आपकी लेखनी का लाभ भी उठाएं। यदि लेखक महोदय लिखने के लिए तैयार भी हो गए और छप भी गए फिर दूसरी प्रक्रियाओं में उनकी दिलचस्पी नहीं होती। दूसरे शब्दों मंे इस तरह के लेखक संकोची प्रवृति के होते हैं। बार बार कोचने के बावजूद उनके अंदर की सुप्त प्रवृत्ति नहीं जाग पाती। यानी वे सिर्फ लिखने में विश्वास करते हैं। छपे न छपे उससे उन्हें कोई लेना देना नहीं होता। न तो वे प्रचार करते हैं और न ही प्रचार पसंद होते हैं। वहीं दूसरी श्रेणी के लेखक हैं जो लिखते कम प्रचार ज्यादा करते हैं। छपते कम छपे जाने की डिंगें ज्यादा मारते हैं। किताब लिखना शुरू भी नहीं करते कि शोर मचाना उनका शगल है। जो छपेगा वेा लिखेगा। जो लिखेगा वो छपेगा जैसे दर्शन में विश्वास करते हैं। इस किस्म के लेखक प्रबंधन और मानवीय रिश्तों को मैनंेज करने में कुशल होते हैं। किस तरह की रचना लिखनी है। कब लिखनी है और किस समय पर उसे छपाना है इन तमाम बिंदुओं पर ठहर कर काम करते हैं। ऐसे लेखक रणनीति बना कर घेरे बंदी कर किताब भी छपवा लेते हैं और प्रचार, प्रसार भी करा ले जाते हैं। देखते ही देखते इनकी किताब की पब्लिसिटी भी हो जाती है। इन्हीं लेखकों में से कुछ के सितारे चमका दिए जाते हैं और उनकी किताबों की प्रतियां भी खपा दी जाती हैं। कई बार लगता है कि लेखक भी बनाए जाते हैं। अब वह समय गया कि अंतःकरण से प्रेरित होकर विषयों पर लिखने के लिए लेखक पैदा होते हैं। अब समय और बाजार के अनुसार लेखक कर्म चुना जाता है। कोई बैंक की नौकरी में है तो केाई बिजनेस के साथ ही लेखक भी बन जाता है। बिजनेस तो है ही लेखक बन कर तथाकथित प्रबुद्ध समाज में शाॅल, माला, प्रशस्ति पत्र भी बटोरने लगते हैं। इन्हें पैसों की भूख नहीं होती बस इन्हें समाज में लेाग लेखक,चिंतक के नाम से जानें बस इस कारण लेखकों की जमात में शामिल होते हैं।
यदि पुराने लेखकों की पीढ़ी को छोड़ दिया जाए तो आज जिस शिद्दत से लेखक लिख रहे हैं कई बार उनकी किताबों को पढ़ कर घोर निराशा होती है। वे किताबें शोर और घोषणा, आत्म प्रचार और जुमलों की कंपाइलेशन सी लगती है। अंग्रेजी से लेकर हिन्दी तक की भाषाओं में इस तरह से नए नए पैदा हुए लेखकों के दर्शन हो जाएंगे। माना लिया जाता है कि साहित्य व भाषा में एम ए किया है तो आप आधिकारिक तौर पर लेखक तो हैं ही। साहित्य के कम ही छात्र व छात्रा होंगी जो कविता न लिखती हों। कहानी न लिखती हों। यदि वे इन विधाओं में हाथ नहीं आजमाते तो निबंध आदि में उतर जाते हैं। संभव है कविता और कहानी समीक्षक इसे ज्यादा बेहतर बता सकते हैं कि इन दिनों जिस आनन फानन में और तेजी में कविताएं लिखी और छप रही हैं उनमें से कितनी समय और पाठकों की अपेक्षाओं पर खरा उतरेंगी।
मालूम हो कि जिस रफ्तार से संपादकों की सत्ता और प्रकाशन तंत्र का विकेंद्रीकरण हुआ है उसका ख़ामियाज़ा लेखक को तो भुगतना ही पड़ रहा है साथ ही पाठकों को भी ऐसी वैसी किताबों से गुजरना पड़ रहा है। यहां बताते चलें कि जैसे जैसे प्रकाशन और संपादकीय केंद्र को विकें्रद्रीत किया गया वैसे वैसे छपने और छापने की बाढ़ सी आ गई। जब संपादक को महज प्रबंधक की कुर्सी पर बैठा दिया गया तब से प्रकाशित और मुद्रित सामग्री की गुणवत्ता भी शंका के घेरे में आती चली गई। पहले प्रकाशन संस्थानों और अखबार,पत्रिकाओं मंे बैठने वाले संपादक बड़ी ही शिद्दत से रचना को मांजते-खंघालते थे। इससे लेखकीय कौशल मंे भी निखार आता था। अपने समय के बड़े बड़े लेखकों की रचनाओं को भी संपादक वापस करने और सुधारने का माद्दा रखते थे। सुधार और संपादित कर छापने का अधिकार संपादक के पास होता था। लेखक संपादक की लेखनी और संपादक कौशल के कायल होते थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रभाष जोशी,अज्ञेय,श्रीकांत वर्मा,रघुवीर सहाय जैसे संपादकों ने अपने समय के हस्ताक्षर लेखकों की रचनाओं को न केवल संपादित किया बल्कि नए लेखकों को भी पाठकों के बीच लेकर आए। लेकिन अब संपादक की सत्ता भी कमजोर हो गई है। जैसे जैसे प्रकाशन घराने विकेंद्रीत होते गए और जैसे जैसे सोशल मीडिया का चलन बढ़ा वैसे वैसे हर कोई लेखक,कवि,पत्रकार बन गए। सेाशल मीडिया पर कोई संपादक का न होना एक तरह से रचनाओं में गिरावट का भी कारण बना। जो जैसा लिख रहा है वैसा ही वेबकास्ट कर रहा है। वेबकास्टिंग के दौर मंे गुणवत्ता की उम्मीद करना बेईमानी है। यही वजह है कि आज तमाम सेाशल मीडिया के मार्फत रातों रात लोगों को लेखक,कवि बनाने का खेल चल पड़ा है। हालात तो तब और बिगड़ती नजर आती है जब लोग अपनी रचना पर मांग कर लाइक और कमेंट पाते हैं। यदि आपने कमेंट नहीं दिया और यदि कटू आलोचना व गंभीर समीक्षा कर दी तो संभव है आपको मित्र सूची से ही बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए। यहां पर एक अलग किस्म की चाटूकारिता और लाइक की दुनिया बुनी जाती है। आलम तो यह है कि धड़ाधड़ लोग कविताएं पोस्ट करते हैं और उसी अनुपात में लाइक और कमेंट की गिनती वैसी ही किया करते हैं जैसे चुनाव के बाद वोटों की गिनती शुरू होती है। दूसरे के बढ़ते वोटों को देख जलन और मन खट्टा होने लगता है कुछ उसी तर्ज पर सोशल मीडिया में भी पेास्टकर्ताओं की मनोदशा को पढ़ा और देखा जा सकता है।
छपी हुई किताबों की दुनिया एक ओर और सोशल मीडिया की दुनिया दूसरी ओर खड़ी है। एक ओर मुद्रित दुनिया है जहां छपाई,कवर, चित्रांकन आदि खासा महत्व रखता है। यदि बच्चों की किताब है तो उसमें चित्र और रेखांकन बहुत मायने रखता है। उसके पन्ने और फांट और कागज की गुणवत्ता बहुत अहम होता है। यदि बच्चों को किताबें अपनी ओर आकर्षित नहीं करतीं तो उसमें लेखक जितना दोषी है उतना ही प्रकाशक भी जिम्मेदार है। ठीक उसी तरह से बड़ों के लिए लिखने वाले लेखक चुने हुए विषय यानी कथानक के साथ न्याय नहीं कर पाते तो यहां लेखक की कमी तो मानी ही जाएगी साथ ही जिस प्रकाशक ने उसे छापी है उसके संपादकीय प्रतिबद्धता पर भी सवाल खड़े होते हैं। क्या संपादीकय टीम ने पांड़ुलिपि को ठीक से देखा-पढ़ा और संपादन कर्म से गुजारा। यदि संपादक की टीम किताब को दुरुस्त करने के बाद किसी किताब को छापे फिर संभव है एक मुकम्मल किताब पाठकों तक पहुंच पाए। तथ्य और सच यह भी है कि कई बार किताब की संरचना और कथानक इतनी सुव्यवस्थित होती है कि वो पाठकों में दिलों में घर कर जाती है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि लेखक अपने चुने हुए कंटेंट के साथ किस प्रकार का बर्ताव करता है। क्या लेखक ने किताब में जिस बात व कथ्य को लेकर चला है उसके साथ न्याय कर पाया है? क्या लेखकीय जिम्मेदारियों को पूरी तरह से निर्वहन किया गया है आदि सवालों का जवाब पाठक वर्ग को मिल जाता है तब समझ सकते हैं कि पाठकीय अपेक्षा पूरी हुई। पाठकीय अपेक्षा का पूरा होना यानी किताब की सफलता मानी जाती है।
लेखक किताब लिख लेने के बाद प्रकाशक की तलाश करता है। जब हमारे पास प्रकाशक सीमित हुआ करते थे। सोशल मीडिया और आॅनलाईन से लेकर मुद्रण प्रणाल पुरानी थी तब किताबों का छापना एक कठिन श्रमसाध्य कार्य हुआ करता था। लेकिन समय और तकनीक के साथ यह कार्य सरल और सहज हो चुका है। घर बैठे हम अपनी किताबों को मुद्रित कर सकते हैं। साथ ही ई पिंटिंग के जरिए अपनी किताब की लाख्.ाों प्रतियां बना कर आॅन लाईन उपलब्ध करा सकते हैं। इसके साथ ही एक और बदलाव प्रकाशन जगत में यह हुआ कि प्रकाशकों की एकाधिकार खत्म होने लगा। पहले प्रतिबद्ध लेखक आदि ही प्रकाशक हुआ करते थे जिनकी सहित्य व किताबों मंे रूचि होती थी। लेकिन अब क्योंकि किताबों का व्यवसाय चल पड़ा है तब छोटे बड़े लेखकों के साथ ही दूसरे पेशे लोगों ने भी दो तीन कम्प्यूटर खरीद कर प्रकाशन जगत मंे कूद पड़ हैं। एक ओर बड़े प्रकाशकों के पास लंबा इंतजार करना पड़ता था। वहीं छोटे प्रकाशक ऐसे नए नवेले लेखकों के लिए पलक बिछाए बैठे हैं। माल कैसा भी हो दाम दो और हप्ते में किताब आपके हाथ मंे। पैसे खर्च करें और लेखकों की पंक्ति में खड़े हो जाएं। इस चलन ने किताबों की गुणवत्ता को तो प्रभावित किया ही साथ ही प्रकाशकीय सत्ता में विकेंद्रीकरण की बड़ी घटना को अंजाम तक पहुंचाया। यही कारण है कि आज लोग पलक झपकते ही लेखक और बेस्ट सेलर राईटर बन और बना दिए जाते हैं।
उत्तर पुस्तक लोकार्पण मुख्य कार्य यह शुरू होता है कि लोकार्पित किताब की समीक्षा की जाए। पाठकों और किताब के मध्य परिचय स्थापित किया जाए कि फलां किताब किस विषय पर आधारित है। मसला यह भी है कि किताबें लिखी और छापी गई हैं तो उसका प्रचार भी हो इससे किसी को गुरेज नहीं हो सकता। क्यांेकि सूचना क्रांति के युग यूं तो पलक झपकते ही सूचनाएं वैश्विक यात्रा करने की ताकत रखती हैं। किताबों का भी प्रमोशन हो। प्रचार और विचार एवं परिचर्चा हो किन्तु वह प्रायेाजित न हो। परिचर्चा और लोकार्पण समारोहों मंे होता इससे उलट है। सिर्फ और सिर्फ हां में हां मिलने वालों की जमात में सभी तालियां पीटू होते हैं। यदि किसी ने खरी खरी बात रख दी उसे काफि़र ठहराने में नागर समाज ज़रा भी समय नहीं गवाता।


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