Friday, April 18, 2014

संविधान की नजर में इंसान हैं किन्नर



कौशलेंद्र प्रपन्न
‘वेलकम टू सज्जनपुर’ फिल्म बड़ी ही शिद्दत से किन्नरों की सामाजिक स्थिति पर विमर्श करती है। इस फिल्म का किन्नर चुनाव में खड़ा होता है, लेकिन समाज के बाहुबली वर्ग के आगे उसकी एक नहीं चलती। अंत में हार थक कर जिलाधीकारी से अपने संरक्षण की गुहार लगाती है, लेकिन अंत दर्दनाक ही होता है। चुनाव में कई किन्नरों का आगमन हुआ किन्तु वह गिनती में बेहद कम हैं। हाल ही मंे न्यायपालिका के उच्च संस्था ने किन्नरांे को अन्य इंसानों की तरह ही मौलिक अधिकार की ओर सभ्य समाज का ध्यान खींचा। न्यायालय ने आदेश दिया कि केंद्र एवं राज्य सरकारें अपने यहां इनके स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार के अवसर मुहैया कराएं। ध्यान हो कि समाज के तृतीय लिंगी किस तरह से सामजा के विकास के केंद्र से हाशिए पर जीवन बसर करते हैं। किसी से भी छूपा नहीं है कि समाज में कुछ विशेष अवसरों पर इन्हें घर की देहारी पार करने की इजाजत दी जाती है। और उसके बाद उनसे सभ्य समाज का वास्ता किस कदर उपेक्षा, डर और तिरस्कार का होता है। पूरे देश में किन्नरों की संख्या और उनकी माली हालत का जायजा लिया जाए तो आंखों में आंसू उतर पड़ेंगी। किन्नर हमारे समाज के वो अंग हैं जो रहते तो हमारे बीच में ही हैं लेकिन उन्हें समाज और सरकार की कल्याणकारी किसी भी योजना का लाभ न के बराबर मिलता है। यूं तो किन्नर यानी तृतीय लिंगी समाज से हमारा रिश्ता महज बलैया लेने वाले वर्ग का रहा है। लेकिन सभ्य समाज ने उनके कल्याण के लिए ठोस कदम नहीं उठाए। यही वजह है कि ये समाज में तो रहते हैं लेकिन समाज की धड़कन बन कर नहीं बल्कि एक बजबजाते कोने में सिमट कर रहते हैं। इनके प्रति जिस तरह का समाजिकरण हमारे बच्चों में पैदा किया जाता है यही उन्हें देखने-समझने के लिए आजौर के रूप में काम करता है। बचपन से ही इस वर्ग को भय और डर की दृष्टि से देखने का पाठ न केवल स्कूलों बल्कि घर में भी पढ़ाया जाता है। यहां तक कि पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यक्रमों व पाठ्यचर्या को उठा कर देख लें कहीं भी इनके बारे में न तो जानकारी दी जाती है और न उन्हें समझने के लिए कोई पाठ का निर्माण ही किया जाता है। हमारी शिक्षा-विमर्श इन्हें गोया इन्हें समझने के योग्य ही नहीं मानती। यही कारण है कि तृतीय लिंगी समाज हमारे शिक्षा-दर्शन, शिक्षा विमर्श से एक सिरे के गायब है। यहां तक कि कहानियों, कविताओं, उपन्यासों की दुनिया भी इन्हें बेहद कम जगह देती है।
तृतीय लिंगी समाज के बारे में यदि कोई जानना या समझ बनाना चाहे भी तो हमारे पास कोई पुख्ता और प्रमाणिक किताब का न होना यह साबित करता है कि यह वर्ग कलमकारों की नजर से भी दूर ही छिटके रहे हैं। यदि पुराऐतिहासिक काल खंड़ों में इनके योगादान व भूमिकाओं को नजर अंदाज कर भी चलें तो आज की तारीख में इन्हें समझने के लिए हमारे पास कोई औजार नहीं है। यदि कोई स्रोत इन्हें समझने के लिए हो सकता है तो ये स्वयं हैं। लेकिन इनके समाज में अंधेरा और रहस्य इस कदर कायम रखा जाता है कि कोइ्र बाहरी इनकी दुनिया में सहज रूप से प्रवेश नहीं कर सकता। इनके गुरुओं की सख्त हियादत रहती है कि अपनी दुनिया के बारे में बाहरी लोगों से कोई बातचीत न की जाए। यदि कोई इस नियम का पालन नहीं करता उसे कठोर दंड़ भुगतना पड़ता है।
  पूरे देश में प्राकृतिक तृतीय लिंगी की संख्या बेहद कम है। जो बहुसंख्य दिखाई देते हैं उनमें से अधिकांश आॅपरेशन के द्वारा बनाए जाते हैं। इसकी भी अपनी कहानी है। यह कहानी बेहद दर्दीली और भयावह होती है। आधी रात में गुरु के संरक्षण में लिंग काटा जाता है। इससे पहले एक जलसे का आयोजन भी किया जाता है जिसमें इस समुदाय के समकक्ष और वयोवृद्ध तृतीय लिंग के लोग शामिल होते हैं। इनका लिंग काट कर एक घड़े में डाल कर पेड़ पर टांग दिया जाता है जब तक कि घाव पूरी तरह से भर न जाए। लिंग छेदन से पूर्व विवाह की तरह ही संस्कार भी किए जाते हैं जिसमें हल्दी लेपन, केले का भोजन आदि। एक प्रकार से उपवास एवं रीति रिवाज के साथ यह कार्य सम्पन्न होता है। यह प्रक्रिया खतरनाक और जोखिम भरा भी होता है। लेकिन इस काम को अंजाम बड़े अनुभवी हाथों से दिए जाते हैं। तृतीय लिंगों की एक ही माता व देवता हैं पूरे देश में जिसे बुचरा माता के नाम से जानते हैं। इनकी माता मुर्गे पर सवार रहती हैं।
हमारे संविधान के धारा 21 और वैश्विक मानवाधिकार घोषणा 1948 के अनुसार इन्हें भी सम्मान से जीने, शिक्षा हासिल करने आदि का हक प्राप्त है। लेकिन वस्तुस्थिति जैसी है उसे देखते हुए बेहद चिंता होती है। जिस प्रकार जीते हैं उसी तरह गुमनामी में मौत भी मयस्सर होता है। मरने के बाद इन्हें खड़कर जूते चप्पलों से पिटते हुए शमशान घाट तक ले जाया जाता है। इन तृतय लिंगी को उनके धर्मानुसार अंतिम विदाई दी जाती है। चप्पलों व जूतों से पीटते हुए ले जाने के पीछे इनका मानना होता है कि अगले जन्म इस रूप में न आना।
संविधान और समाज की बुनावट को एक साथ रख कर देखें तो तृतीय लिंगी समाज में अशिक्षा, बेरोजगारी, स्वास्थ्य आदि कुछ ऐसी बुनियादी समानता है जहां हर नागरिक को मिलना चाहिए। यदि केंद्र व राज्य सरकार इस काम में विफल होती है तो ऐसी स्थिति में न्यायपालिका को कठोर कदम उठाने पड़ते हैं। यही कारण है कि न्यायपालिका ने केंद्र व राज्य सरकारों को आदेश दिया है अपने यहां तृतीय लिंगी को शिक्षा, रोजगार का अधिकार सुनिश्चित करें। यदि इस समाज को शिक्षा के अवसर मिलते हैं तो इस वर्ग में भी विकास और बदलाव संभव हो सकते हैं। वरना जिस तरह से हजारों सालों से जिस पेशे में खुद को गला रहे हैं वह निरंतर चलता रहेगा।
तृतीय लिंगी सभी अशिक्षित हैं ऐसा कहना गलत है। क्योंकि काफी समय पहले दिल्ली के तृतीय लिंगी  पर एक शोध किया था। जिसके दौरान जिस तरह की जानकारी व समझ बनी थी उसे साझा करना अप्रासंगिक न होगा कि दिल्ली के संजय गांधी स्मारके पीछे, जहांगीरपुरी, उत्तम नगर आदि इलाकों में रहने वाले हजारों किन्नरों मंे कई तो ग्रेजूएट, 12 वीं एवं 10 वीं पास थे। लेकिन महज सामाजिक दबाव एवं पारिवारिक उपेक्षा की वजह से इस समाज में शामिल हो गए। आज वो गा-बजा कर और सड़कों पर भीख मांग कर अपना जीवन काट रहे हैं। उनमें भी पढ़ने और शिक्षा के प्रति ललक थी लेकिन समाज के कठोर नियमों और विवश परिवार के सामने इनकी एक न चली। गुरु कटोरी देवी बताती हैं कि मेरे पास आज एक हजार चेले हैं जिनमें अधिकांश ग्रेजूएट हैं वो मेरे पास इस लिए रह रहे हैं क्योंकि उनके अपने परिवार ने उन्हें अस्वीकार कर दिया। आंध्र प्रदेश, बिहार, उड़ीसा आदि राज्यों से आए मेरी बहने और भाई आज एक छत के नीचे सम्मान से जीते हैं। जिन्हें परिवार और समाज दुत्कार देता है उन्हें हम लोग शरण देते हैं। वहीं कनाॅट प्लेस के हनुमान मंदिर के पीछे रहने वाली पूजा बताती/बताता है कि वो बंगाल का रहने वाला है जब स्कूल में मास्टर जी ने उसकी प्रकृति को समझा और उसके बाद उसके साथ गलत आचरण किया तब से वो स्कूल और घर छोड़ कर दिल्ली में अपने समाज में रहने लगा। जहांगीर पुरी के तृतीय लिंगी समाज में पिछले बीस सालों से कमला गुरु हैं उनसे बातचीत अव्वल तो बेहद थकाने वाला था। कई बार उन्होंने बात करने से मना कर दिया लेकिन अंत में हार कर उन्होंने समय दिया। उनकी नाराजगी का बड़ा कारण था मीडिया और इस समाज के लेखक वर्ग। उनका कहना था लोग फोटो खींचते हैं, लेख लिखते हैं और अपनी कमाई तो करते हैं लेकिन हमारी स्थिति सुधरे इसके लिए वो कुछ नहीं करते। हमें नुमाईश का साधन मानते हैं इसलिए मैं बातचीत नहीं करती। मेरे पास बहुत काम है। मुझे चेलों को तैयार करना है।
तृतीय लिंगी का एक बड़ा समाज है और ये लोग संगठित भी हैं। इनका पिछले साल दिल्ली में महासम्मेलन भी हुआ था। जिसमें इस समाज के उत्थान के लिए घोषणा पत्र भी जारी हुआ था। लेकिन वह महज घोषणाएं ही रह गई। याद हो कि दिल्ली में ही दो साल पहले विश्व सुंदरी प्रतियोगिता भी आयोजित की गई थी जिसमें देश भर से किन्नरों ने शिरकत की थी। भला हो मीडिया का कि इसने उस प्रतियोगिता का कवर भी किया था। यदि मीडिया और सभ्य समाज इनके प्रति ज़रा भी संवेदनशील हो जाए तो न्यायपालिका को हाथ लगाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।

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