Thursday, April 3, 2014

कहने का कौशल


कौशलेन्द्र प्रपन्न
पिछले कुछेक हप्तों व सालों के अनुभव के बरक्स यह कहने की हिमाकत कर सकता हूं कि कहने का कौशल हो तो ख़राब से ख़राब कथ्य भी श्रोताओं को बांधे रख सकता है। वहीं कहने की शैली और कला नहीं है तो अच्छी से अच्छी बातें व कथ्य श्रोताओं को लुभाने और सुनने का आनंद नहीं दे पातीं। वाकया हाल ही का है। पिछले कुछ हप्तों से जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान दिल्ली के आर के पुरम, दरियागंज आदि की ओर से प्रधानाध्यापकों, अध्यापकों एवं स्कूल मैंनेजमेंट समिति के सदस्यों की कैपेसिटी बिल्डिंग प्रशिक्षण कार्यशालाओं में आरटीई एक्ट, एसएमसी और स्कूल डेवलप्मेंट प्लान पर प्रशिक्षण देने को बुलाया गया। जहां उन लोगों से बातचीत करनी थी जो शिक्षा में सालों से काम कर रहे हैं। जिनकी शिक्षा के प्रति एक मजबूत समझ बन चुकी है। उनके बीच शिक्षा की स्थिति, उनकी अपनी जिम्मेदारी, नैतिक बोध आदि पर बातचीत करना कोई आसान काम नहीं था। ख़ासकर उन्हें सुनाना व सुनने के लिए तैयार करना भी एक चुनौति ही थी। एक कक्षा अनुभव को साझा करूं तो माज़रा और साफ हो जाएगा। एक दिन पूर्व एनसीइआरटी से सेवा मुक्त प्रोफेसर साहब ने आरटीई पर कक्षा में बातचीत की थी। दूसरे दिन मुझे उसी कक्षा में एसएमसी और एसडीपी पर बात करनी थी। मैंने कक्षा में पूछा आगे बढ़ने से पहले ज़रा टटोल लिया जाए कि आरटीई के दानें आपकी हांड़ी में कितने पके हैं। मैंने उनसे दस मिनट का समय मांगा कि दस मिनट आप मुझें दें फिर हम आगे की बातचीत शुरू करेंगे। उस दस मिनट में जो समझ सामने निकल कर आई वह निराश ही करने वाली थी। कक्षा में उपस्थित तकरीबन 60 सदस्यों ने एक स्वर में कहा आपने जो दस मिनट में आरटीई पर हमें बताया वह कल के ढाई घंटे पर भारी है। इसी दौरान कल वाले प्रोफेसर साहब आ गए और कक्षा में कहा कि वो कुछ बातें उनकी कल रह गई थी जिसे आज पूरा करना चाहते हैं। पूरी कक्षा एक स्वर में मना करने लगी। आज हम इनसे पढ़ना चाहता हैं। बात किसी तरह निपटी। वो तो चले गए लेकिन मेरे सामने एक बड़ा सवाल और जिज्ञासा छोड़ गए।
यह अनुभव मेरे लिए चुनौती भी थी और पुरस्कार भी। मैंने अपनी जिज्ञासा कक्षा में उछाल दी। आप सभी ने ऐसा क्यों किया? जवाब स्पष्ट था-कल पूरी कक्षा सो रही थी। हमें कुछ भी समझ नहीं आया। लगा हमने अपना समय जाया किया। सिर्फ इधर-उधर की बातों में समय काटा। हम भी शिक्षक हैं हमें पता चल गया कि वो समय पास कर रहे थे। न तो उनकी तैयारी थी और न ही विषय की समझ। उसपर उनका पढ़ाने का तरीका भी बेहद बोरीयत वाला था। आपने जो हमें दस मिनट में जिस शैली और अंदाज़ में बताया हमें लगा कि आपके पास कथ्य भी है और कथ्य को पढ़ाने व कहने का कौशल भी। अब मेरा दूसरा सवाल था-ज़रा कल्पना कीजिए जब आप कक्षा में बतौर अध्यापन कर रहे होते हैं तब यदि ऐसी स्थिति होती होगी तो बच्चे कैसा महसूस करते होंगे? क्या हमें अपनी शैली और कथ्य को जांचने-परखने की आवश्यकता नहीं है? इस संवाद में कक्षा सचमुच जीवंत हो उठी थी। मेरे लिए अब अपने विषय पर लौटना आसान हो गया था।
लब्बोलुआब यह है कि कथानक व कथ्य तो महत्वपूर्ण होते ही हैं। लेकिन यदि उनके साथ बरताव ठीक से न किया जाए जो वह संप्रेषित नहीं हो पातीं। यदि संप्रेषित हो भी जाएं तो श्रोताओं के अंग नहीं पातीं। विषय की समझ और जानकारी होना एक बात है और उसको श्रोताओं तक रोचक तरीके से पहुंचाना दूसरी बात। कहा जाता है कि जरूरी नहीं कि अच्छा लेखक अच्छा वक्ता भी हो। या अच्छा वक्ता अच्छा लेखक भी हो। लेकिन कमाल तो यही है कि यदि इन दोनों कौशलों का संजोग यदि शिक्षक में हो जाए तो वह कक्षा जीवंत हो उठती है। सुनने वाले व सीखने की ललक लिए बैठे श्रोता वर्ग को भी ऐसा नहीं लगता कि उनका समय बेकार गया।
इससे किसी को गुरेज नहीं होगा कि आज की तारीख में किसी को कुछ सुनना कितना कठिन है। सुनने वाले से ज्यादा कहने वाले को चुस्त, चैकन्ना और अपनी शैली मंे दक्ष होना होता है। तभी किसी को सुनने के प्रति मजबूर किया जा सकता है। सुनने के नाम पर हम गाने सुन लेते हैं। वहां हमारे पास चुनाव करने की आज़ादी होती है। नहीं पसंद आया तो गाने बदल सकते हैं। ठीक उसी तरह सुनने वाले के पास इस की भी गुंजाईश हो कि वह वक्ता बदल दे। मगर शिक्षण- प्रशिक्षण के दौरान इस बात की उम्मींद बहुत कमजोर होती है। ख़ासकर कक्षाओं में। किसी अध्यापक को दूसरी कक्षा में तो भेजा जा सकता है। लेकिन स्थानांतरण इसका स्थाई समाधान नहीं हो सकता। एक शिक्षक को यदि एक कक्षा में बच्चों ने सुनने व पढ़ने से मना कर दिया तो क्या दूसरी कक्षा के लिए वो उपयुक्त हो सकते हैं? संभव है श्रोता व कक्षा के स्तर में रद्दो बदल से थोड़ा तो अंतर पड़े लेकिन शिक्षक की पढ़ाने की शैली में बदलाव किया जाए तो यह स्थिति ही न पैदा हो।
तमाम रिपोर्ट और शिक्षा में हो रहे नवाचारों पर नजर डालें तो पाएंगे कि शिक्षा को ख़ासकर प्राथमिक कक्षाओं मंे रोचक और आनंददायी प्रक्रिया बनाने पर जोर है। शिक्षा वह जो बच्चों को आनंद दे सके। शिक्षक अपने कथ्य व कहने की शैली में परिवर्तन करे। तभी कक्षा जीवंत हो सकती है। वरना एक ओर शिक्षक पढ़ाते हैं और दूसरी ओर बच्चे उनका मजाक बनाने से भी पीछे नहीं रहते। यही वजह है कि कक्षा में शिक्षण रोचक बनने की बजाए वह बोझ बन जाती है। लेकिन अफसोस कि बच्चों के पास इसका अधिकार नहीं होता कि वह शिक्षक बदल दे। यदि ऐसा होता भी है तो बच्चों को शिक्षक के कोपभाजक भी बनना पड़ जाता है। आरटीई से लेकर एजूकेशन फोर आॅल का लक्ष्य यही है कि शिक्षा आनंद पैदा करे। पढ़ने के प्रति बच्चों में जिज्ञासा का संचार हो। श्रोता-वक्ता एक दूसरे का समय न जाया करें। यह तभी संभव है जब हम अपने कथ्य और कथ्य की शैली पर भी काम करें। कहने का कौशल नहीं, तो श्रोताओं पर दोषारोपण कहां तक उचित है।

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