Wednesday, April 2, 2014

आज फिर आंखें बरस पड़ी


तुम उस तरफ चले गए-
इधर तुम्हें तलाशती हैं आंखें,
छोड़ गए,
अपने मकान,
अपने लोग,
अपने खेत,
अपनी पहचान।
उधर से भी आए-
वही दर्द,
वही चीख,
अपना बचपन,
जब भी छिड़ती है कोई बात,
आज भी आंखें बरसने लगती है।
तुम्हें याद हो न हो-
मगर आज भी वहां,
गाए जाते हैं यहां के गीत,
इधर भी वही मंज़र है,
बार बार,
याद कर,
डस सैलाब को,
झरने लगती हैं गंग-जमुन।
नहीं बदल सकते-
भूगोल,
न ही खींच सकते और विभाजन की रेखाएं मोटी,
ग़र कुछ कर सकते हैं,
आओ एक बार फिर से गुफ्तगू करें।

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