Wednesday, April 16, 2014

हम तृतीय लिंगी



-कौशलेंद्र प्रपन्न
सड़क, डैडी,वेल्कम टू सज्जनपुर जैसी फिल्मों में तृतीय पुरुष की जिस संवेदना और सामाजिक दरकार को चित्रित किया है आज वहां से आगे बढ़कर सांवैधानिक पहल और आदेश से थोड़ी ही सही किन्तु उम्मींद की किरण फुटती है। तृतीय लिंगी इस समुदाय को किन- किन और कैसे- कैसे बर्ताव समाज में सहने और झेलने पड़ते हैं यह किसी से भी छुपा नहीं है। कुछ साल पहले अभिमुख सभागार में नामवर सिंह के साथ एक नाटक ‘जानेमन’ नाटक देखा था। उस नाटक को देखने के बाद नामवर सिंह के आंखों से आंसू टपक पड़े थे। वास्तव में इस नाटक को देखना दरअसल तृतीय लिंगी समाज से रू ब रू होना है। किस प्रकार से इस समाज में भी मठाधीशों का बोलबाला है। इसे भी नकार नहीं सकते। जो जितना प्रभावशाली और चेलों का गुरू है उसकी इस समाज में उतनी ही ज्यादा प्रतिष्ठा और मान-सम्मान है। इनके समाज में भी चेलों की खरीद- फरोख़्त होती है। सवा रुपए से लेकर हजारों और लाखों में नए तृतीय लिंगी को अपना चेला बनाया जाता है।
काफी समय पहले दिल्ली के तृतीय पुरुष पर एक शोध किया था। जिसके दौरान जिस तरह की जानकारी व समझ बनी थी उसे साझा करना अप्रासंगिक न होगा कि इस समाज में जिस तरह के अंधकार और घटाटोप की संस्कृति बरकरार रखी जाती है उसके पीछे मकसद यही होता है कि बाहरी समाज को हमारी संरचनाओं और बुनावट का इल्म न हो सके। कोई भी तृतीय लिंगी अपने समाज की हकीकत बयां नहीं करना चाहता। इसके पीछे डर काम कर रहा होता है। गुरू किसी भी कीमत पर यह इज़ाजत नहीं देता कि उसके चेले बाहरी समाज में यहां की वास्तविकता को साझा करें। लेकिन कुछ अत्यंत प्रताडि़त तृतीय पुरुष मंुह खोल ही देते हैं जिसका ख़ामियाजा उन्हें अपने समाज में भुगतना पड़ता है।
आज देश भर में इस समाज के कल्याण और अधिकार के लिए कुछ स्वयं सेवी संस्थाएं सक्रिय हैं, लेकिन इनकी संख्या बेहद कम है और इस समाज की समस्याएं कहीं ज्यादा। दिल्ली के संजय काॅलोनी, जहांगीरपुरी के क्षेत्र, लक्ष्मी नगर, उत्तम नगर आदि क्षेत्रों में रहने वाले तृतीय लिंगी इसी दिल्ली में रहते हुए कई तरह की जोखि़मों का सामना करते हैं। बहुत कम तृतीय लिंगी हैं जिनकी स्थिति अच्छी है। जिनके पास गाड़ी, पैसे, चेले और जिंदगी के तमाम सुख-साधन हैं। बाकी तो किसी तरह भिखारी के मानिंद ही जिंदगी बसर करते हैं। कोई रेड लाइट पर तो कोई काॅलोनी में मांग कर ही जीवन काटते हैं। जो जवान हैं उनके आय के कई अन्य साधन हैं, लेकिन जो बुढ़े हो चुके हैं उनकी स्थिति शायद कुछ कुछ वैसी ही हो गई जैसे वृद्ध वैश्याओं की। जिन्हें जवान तृतीय लिंगी की कमाई और दया पर जीवन व्यतीत करना पड़ता है।
पूरे देश में प्राकृतिक तृतीय लिंगी की संख्या बेहद कम है। जो बहुसंख्य दिखाई देते हैं उनमें से अधिकांश आॅपरेशन के द्वारा बनाए जाते हैं। इसकी भी अपनी कहानी है। यह कहानी बेहद दर्दीली और भयावह होती है। आधी रात में गुरु के संरक्षण में लिंग काटा जाता है। इससे पहले एक जलसे का आयोजन भी किया जाता है जिसमें इस समुदाय के समकक्ष और वयोवृद्ध तृतीय लिंग के लोग शामिल होते हैं। इनका लिंग काट कर एक घड़े में डाल कर पेड़ पर टांग दिया जाता है जब तक कि घाव पूरी तरह से भर न जाए। लिंग छेदन से पूर्व विवाह की तरह ही संस्कार भी किए जाते हैं जिसमें हल्दी लेपन, केले का भोजन आदि। एक प्रकार से उपवास एवं रीति रिवाज के साथ यह कार्य सम्पन्न होता है। यह प्रक्रिया खतरनाक और जोखिम भरा भी होता है। लेकिन इस काम को अंजाम बड़े अनुभवी हाथों से दिए जाते हैं। तृतीय लिंगों की एक ही माता व देवता हैं पूरे देश में जिसे बुचरा माता के नाम से जानते हैं। इनकी माता मुर्गे पर सवार रहती हैं।
अफसोस की बात है कि हमारे इसी समाज के हिस्सा होने के बावजूद इनकी दुनिया हमारी दुनिया से एकदम कटी और डरावनी बना दी गई है। ताज्जुब की बात तो यह भी है कि कवि, लेखक, कथाकार आदि विभिन्न विषयों पर तो खूब लिखते हैं, लेकिन इनकी दुनिया को कलमबद्ध करने वाले बहुत कम हैं। यदि तृतीय लिंगीय समाज के बारे में प्रमाणिक जानकारी हासिल करनी हो तो आज हमारे पास कोई भी ऐसी किताब नहीं हैं।
हमारे संविधान और वैश्विक मानवाधिकार घोषणा 1948 के अनुसार इन्हें भी सम्मान से जीने, शिक्षा हासिल करने आदि का हक प्राप्त है। लेकिन वस्तुस्थिति जैसी है उसे देखते हुए बेहद चिंता होती है। जिस प्रकार जीते हैं उसी तरह गुमनामी में मौत भी मयस्सर होता है। मरने के बाद इन्हें खड़कर जूते चप्पलों से पिटते हुए शमशान घाट तक ले जाया जाता है। इन तृतय लिंगी को उनके धर्मानुसार अंतिम विदाई दी जाती है। चप्पलों व जूतों से पीटते हुए ले जाने के पीछे इनका मानना होता है कि अगले जन्म इस रूप में न आना।

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