Tuesday, November 26, 2013

शिक्षक के कंधे पर बहुभूमिका का जुआ


-कौशलेंद्र प्रपन्न
 सो शिक्षक/शिक्षिका के कंधे पर बहुभूमिका का जुआ रहता है। शिक्षक पर यह जिम्मेदारी समाज ने बहुत सोच- समझ और तैयारी के साथ डाली है। सिविल सोसायटी अपने बच्चों के भविष्य का दारोमदार एक जिम्मेदार और अध्ययन-अध्यापन की रोटी खाने और जीवन दान दे चुके, शिक्षक वर्ग को अपने बच्चों को सौंप कर खुद को मुक्त महसूस करता है। अपने लाडले व लाडली को सात आठ घंटे ही महज नहीं प्रदान करता, बल्कि पूरी जिंदगी की तैयारी के लिए विश्वासपात्र के हाथों देकर आश्वस्त हो जाता है। और यह प्रक्रिया प्राचीन भी है। जब गुरूकुल में राजघराने के बच्चे हों या आम जनता के बच्चे सभी एक ही गुरूकुल में शिक्षा ग्रहण किया करते थे। एक गुरू अपनी पूरी निष्ठा, ईमानदारी और ज्ञान-संपदा छात्रों को सौंपा करता था। यह अगल बात है कि उसी इतिहास में गुरू द्रोण भी मिलते हैं। लेकिन सैंद्धांतिकतौर पर शिक्षक व गुरू से निरपेक्षभाव की उम्मींद ही की जाती है। वह निरपेक्ष भाव दूसरे शब्दों में कहें तो धर्म,जाति, भाषा, बोली, वर्ग,रंग-रूप तमाम कोटियां शामिल हो जाती हैं जिसकी चर्चा और सांवैधानिक शब्दों में कहें तो मौलिक अधिकार में शामिल, किसी भी नागरिक बच्चे भी शामिल हैं, के साथ उक्त आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा, की उम्मींद और अपेक्षा शिक्षक वर्ग से भी की जाती है। काफी हद तक शिक्षक इस निकष पर खरे भी उतरते हैं। लेकिन अब के टीचर गुरू व शिक्षक जो पुराने वाले थे, उन्हें छोड़ दें तो थोड़ी निराशा होती है। समय समय पर अध्यापन वर्ग से जुड़े शिक्षक समुदाय से जिस तरह की खबरें आयी हैं वह एक नए विमर्श की मांग करती है। मसलन शिक्षकों द्वारा बच्चों/बच्चियों का शारीरिक, मानसिक शोषण व बलात्कार आदि। इससे पूरे शिक्षक समुदाय पर सवालिया निशान लग जाता है। यदि स्कूल के प्रांगण से ऐसी खबरें आती हैं तो यह कहीं न कहीं शिक्षा-शिक्षण-प्रशिक्षण की प्रक्रिया पर भी सवाल उठता है। क्या शिक्षक-प्रशिक्षण के दौरान गुणवत्तापूर्ण तालीम नवप्रशिक्षु को शिक्षा दी जाती है? क्या शिक्षा-दर्शन और शिक्षा-मनोविज्ञान एवं शिक्षा का समाज-शास्त्र उन्हें इसी तरह की शिक्षा-दीक्षा देती है जिसे स्कूल में आते ही अमूमन शिक्षककर्मी भूल जाते हैं या ताख पर रख कर अपनी शिक्षण विधि इजाद कर लेते हैं?
बहरहाल सवाल और जिज्ञाया से लगातार और रोजदिन जुझने वाले शिक्षकों को विचार तो करना ही होगा कि क्या वास्तव में वे अपनी पूरी निष्ठा और ज्ञान-संपदा बच्चों को प्रदान कर पा रहे हैं। इस तथ्य और सच्चाई से भी कोई मुंह नहीं मोड़ सकता कि अध्यापक की छवि बच्चों के साथ ताउम्र रहती है। कहना चाहिए न केवल रहती है, बल्कि कई अध्यापक बच्चों के लिए जीवन के मूल्य बन जाते हैं। जहां जाते हैं उनके साथ उनका अध्यापक साथ होता है। इसलिए भी अध्यापक की हर गतिविधि चलना, बोलना, लिखना, पढ़ना आदि बच्चों पर गहरे प्रभाव छोड़ते हैं। ऐसे में अध्यापक को सावधानी तो बरतनी ही पड़ेगी। वरना उसकी एक गलती आने वाली पौध को बरबाद होने से नहीं बचा सकती।
बच्चों के जीवन को जितना अध्यापक प्रभावित करता है उतना शायद समाज का दूसरा घटक नहीं। यूं तो आज की तारीख में समाज में नई नई तकनीकें आ गई हैं। ई-माध्यमों के आ जाने से एकबारगी आशंका जताई जा रही है कि अध्यापकों की भूमिका खत्म हो जाएगी। किन्तु वास्तविकता ऐसा नहीं है। तमाम तकनीक आएं आ जाएं बेशक, किन्तु अध्यापक की जगह कोई मशीनी तत्व नहीं ले सकता। अध्यापक न केवल टेक्स्ट का वाचक है, बल्कि उसके साथ उसकी मुद्राएं, भावभंगिमाएं भी तो हैं जो तकनीक के बूते की बात नहीं। वाचन से लेकर लेखन, पठन तक की ऐसी प्रक्रिया हैं जिसमें तकनीक की घुसपैठ ज़रा मुश्किल है। यही वजह है कि कक्षा में और कक्षा के बाहर भी अध्यापक अपनी पूरी उपस्थिति दर्ज कराता है। यही वजह है कि शिक्षक की भूमिका और उपस्थिति कभी खत्म नहीं होने वाली। तब तो शिक्षक का काम और भी चुनौतिपूर्ण हो जाता है। यदि कोई बच्चा गलत रास्ते पर जाता है या समाज में असामाजिक गतिविधियों में शामिल पाया जाता है तब भी प्रकारांतर से सवाल यही उठता है कि अध्यापक ने यही तालीम दी? यानी अध्यापक केवल कक्षा में पढ़ा कर अपनी भूमिका से हाथ नहीं झाड़ सकता। बल्कि उसका साथ परोक्ष और अपरोक्ष दोनों ही स्तरों पर बच्चों के साथ रहता है। यहां एक दोषारोपण का खेल भी खूब चलता है। वह यह कि अध्यापक ही सब कुछ करे तो अभिभावक क्या करेंगे? अध्यापक पढ़ाए कि उसकी पोटी भी साफ करे, नहलाए धुलाए और संस्कारित भी करे? क्या क्या करे अध्यापक? एक अध्यापक कक्षा भी पढ़ाए, स्कूल के अन्य काम भी करे, दफ्तरी काम भी निपटाए और बीच बीच में सरकारी कामों में भी ड्यूटी दे। सही है कि सरकारी ड्यूटी जिसे इंकार नहीं कर सकते। मसलन जनगणना, चुनाव, आपातकालीन स्थितियां आदि, लेकिन सरकारी रिपोर्ट ‘डाईस’ बताती हैं कि कुल पूरे साल में 16,18 व 20 दिन ही अध्यापकों को गैरशैक्षणिक कामों में लगाया जाता है।
जब हम अध्यापकीय भूमिका पर विहंगम दृष्टि डालते हैं तब तस्वीर और भी साफ होती है। एक अध्यापक की बहुआयामी भूमिका होती है। वह एक सामाजिक होने के नाते बच्चों को एक सामान्य और जिम्मेदार नागरिक बनाने में अपना सहयोग दे। शिक्षित होने के नाते बच्चे को न केवल साक्षर बनाए बल्कि शिक्षित भी करे। शिक्षा किस प्रकार जीवन को बेहतर बनाती है और कैसे जीवन की मुश्किलों में चुनौतियों का सामना करे इसकी के भी औजार प्रदान करे। इससे भी बढ़कर जो भूमिका है वह यह कि एक मुकम्मल इंसान बनने में अध्यापक अपनी भूमिका से किसी भी किस्म की कोताही न करे। क्योंकि एक बेहतर इंसान बनाना शिक्षा की जिम्मेदारी तो है ही साथ ही उद्देश्य भी। इस उद्देश्य को अमली जामा पहनाने में शिक्षक ही उपयुक्त माध्यम हो सकता है। शिक्षा,बच्चे और शिक्षक की त्रिआयामी मिश्रण में समुचित तालमेल और सामंजस्य ही समाज को एक बेहतर नागरिक प्रदान कर सकता है। इस दृष्टि से अध्यापक के इर्द- गिर्द सारा का सारा समीकरण बनता और बिगड़ता है।
यूं तो हर मनुष्य को संवदेनशील होना ही चाहिए। यह अलग बात है कि जिस तेजी से हम आधुनिक होते जा रहे हैं। हम तकनीक से लैस हो रहे हैं नागर हुए है उसी रफ्तार से हमारे अंदर का मनुष्य सूखता जा रहा है। इसकी बानगी समय समय पर देखने को मिलती हैं। कोई सड़क पर तड़प कर जान दे देता है, लेकिन हम उसे बचाने के लिए नहीं रूकते। और भी कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। जिसे देख सुन कर यही लगता है कि समाज में मनुष्य वो भी संवेदनशील मनुष्य की कमी होती जा रही है। बच्चा एक वयस्क का छोटा रूप होता है। स्कूल में जो भी बच्चा आता है वह स्कूल में न केवल शिक्षा-वर्णमाला रटने नहीं आता और न ही केवल नौकरी पाने की तैयारी के लिए आता है, बल्कि वह अपने सर्वांगीण विकास का सपना भी ले कर आता है। इस सर्वांगींण विकास में एक संवेदनशील मनुष्य बनने की जिज्ञासा भी शामिल है। इस लिहाज से शिक्षक को प्रथमतः एक संवेदनशील मनुष्य तो होना ही चाहिए ताकि वह इस गुण व प्रकृति को बेहतर तरीके से बच्चों में संक्रमित करें।
एक अध्यापक केवल आदेश और निर्देश देने का घटक नहीं है। और न वह महज पाठ्य पुस्तकों का वाचक ही है। बल्कि अध्यापक को कक्षा और कक्षा के बाहर भी संवाद की संभावनाएं खुली रखनी चाहिए। जे कृष्ण मूर्ति अकसर संवाद पर ध्यान दिया करते थे। उनका तो यहां तक कहना था कि प्रकृति हमसे हर वक्त संवाद करती है। वही दर्शन उन्होंने शिक्षा में आजमाया और वकालत की कि कक्षा में संवाद होना चाहिए। संवाद का अर्थ शोर नहीं है। बल्कि एक सार्थक संवाद में शिक्षक और बच्चे दोनों सहभागी हों। जहां संवाद होता है वहां सच्चे मायने में सकारात्मक सोच और सृजनशीलता के द्वार खुलते हैं। एक अध्यापक को संवाद के लिए बच्चों को उकसाना भी चाहिए। क्योंकि बच्चों में यदि संवाद की क्षमता व कौशल का विकास नहीं होगा तो वह सिर्फ निर्देश लेने और देने की भूमिका तक ही सिमटकर रह जाएंगे।
अभिभावक से अर्थ बच्चे के नाते रिश्तेदार ही नहीं होते। बल्कि समाज का वह हर वर्ग बच्चे का अभिभावक है जिसकी मदद से एक मुकम्मल नागरिक का निर्माण संभव है। इस दृष्टि से अध्यापक तो बच्चों के खासे करीब होता है। स्कूल के प्रांगण से लेकर घर के आंगन तक अध्यापक परोक्ष-अपरोक्ष रूप से उपस्थित रहता है। जिस तरह से अध्यापक अपने बच्चे को देखता-रखता है उससे ज़रा भी कम दूसरे के बच्चों को नहीं रखना चाहिए। क्योंकि अध्यापक पर ऐसे में दोहरी जिम्मेदारी हो जाती है। समाज उनको इस भरोसे अपनी पौध को देता है कि आप ही समर्थ और सक्षम व्यक्ति हैं जो हमारे बच्चे को बेहतर जिंदगी और भविष्य दे सकते हैं। लेकिन यह अलग विमर्श का विषय है कि वही अध्यापक बच्चों के साथ कई बार गैर जिम्मेदाराना बर्ताव भी करता है। इससे पूरी अध्यापकीय परिवार शक के घेरे में आ जाती है।
पठन- पाठन से जुड़े होने के नाते शिक्षकों को तो शोध-अध्ययन के काफी करीब रहना चाहिए। ज्ञान और सूचना नित नए आयाम और शोधों से निखरते हैं। यदि एक शिक्षक शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान के क्षेत्र में होने वाले नवाचारों एवं रिसर्च से वाकिफ नहीं  होगा तो वह एक तरह से पिछड़ जाएगा। उसका पिछड़ना बच्चों के लिए हानिकारक है। सो अध्यापकों को कम से कम अपने विषय में होने वाले रिसर्च-खोजों, लेखन से तो अवगत होना ही चाहिए। क्यांेकि अध्यापन के नए नए तरीके और प्रविधियां तैयार हो रही हैं यदि उनका इस्तेमाल अध्यापन में करता है तो वह उसके लिए तो सहज और उत्पादक है ही साथ ही बच्चों में भी पढ़ने-लिखने की ललक पैदा कर सकता है। लेकिन अफसोस की बात है कि कई कार्यशालाओं में ऐसे अध्यापको से भी रू ब रू होने का मौका मिला है जो गैर शैक्षणिक कार्यों का हवाला दे कर अध्ययन के लिए समय की कमी का रोना रोते हैं। जबकि यदि आप पढ़ना चाहें तो समय निकाल सकते हैं। अध्ययन, शोधादि के सम्पर्क में जिन कर्मीयों के लिए आवश्यक है उनमें वकील, डाॅक्टर, टीचर, पत्रकार खासतौर से शामिल हैं। इन्हें अपने क्षेत्र में होने वाले अध्ययनों से हर वक्त ताजा और तत्पर होना चाहिए। यदि अध्यापक ही पढ़ने में रूचि नहीं लेगा तो वह बच्चों में पाठ्यपुस्तकेत्तर समाग्री पढ़ने की रूचि कैसे जगा पाएगा। इसलिए खुद तो अध्यापक पढ़े ही साथ ही बच्चों में भी पढ़ने की ललक पैदा करे।

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