Tuesday, November 19, 2013

महानगरीय उक्ताहट


कई बार लगता है हम जैसे जैस आधुनिक, नागर समाज के हिस्सा होते जा रहे हैं वैसे वैसे हमसे कुछ अहम चीजें पीछे सरकती जा रही हैं। उस सरकन में सबसे ख़ास चीज यह है कि हमारे अंदर की संवेदना और संवाद की तरलता सूखती जा रही है। 
आज लंदन में रहने वाले मेरे एक मित्र का फोन आया। वह इतना परेशान था कि उसने कहा मैं यहां की जिंदगी जी जी कर अंदर से खाली और बेककार की चीजों से भर गया हूं। चाहता हूं कुछ दिन नगर से दूर एकदम बिना दिखावटी जीवन जी पाउं। 
ज़रा सोचें क्या संभव है कि आम अपने अंदर की सूखन को बचा पाने के लिए परेशान हैं? क्या हम चाहें तो अपनी तरलता को बचा सकते हैं? यदि हां तो फिर देर किस बात की हमें अपने अंदर के गंवईपन को बचाना होगा। अपने अंदर के इंसान को जगा कर रखना होगा। क्या आप सहमत हैं?
मां इस बेटे से उस बेटे के घर उस बेटे से उस बेटी के घर डोलती फिरती है। लेकिन उससे नहीं पूछा जाता कि वह कहां रहना चाहती हैं? जनाब स्थिति तो यह है कि बेटा मां को एयर पोर्ट पर बैठा कर बीवी के संग मकान बेच विदेश रवाना हो जाता है। मां बेघर। न घर पति का घर रहा और न बेटा साथ ले गया।

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