Thursday, November 7, 2013

जांता, ढेकी और जीमालय


याद है जब अपनी नानिहाल जाया करता था तब वहां जांता, ढेकी और कुआं से पानी खींचती महिलाएं दिखाई देती थीं। उनकी बदन पर चरबी का नामोनिशान नहीं होता था। वो किसी जीम में नहीं जाती थीं अपनी चर्बी गलाने। चावल, गेहंू घर में ही जांता, ढेकी में कूट-झान लिया करती थीं। पानी के लिए या तो हाथ वाला कल होता था या फिर सामूहिक कुआं हुआ करता था। पानी खींचो और स्वस्थ रहो। घरेलू कामों में मशीन से ज्यादा छोटी मोटी चीजें हाथ से ही निपाटाते थे। सब्जी में पड़ने वाले मशाले के लिए शील और लोढ़ा हुआ करता था।
एक दिन जीम में जाना हुआ यह देखने कि लोग भागते हैं। मेहनत करते हैं। ताकि शरीर पर चढ़ी चरबी को झारा जा सके। क्या देखा कि लोग टेडमिल पर भाग रहे हैं। पसीने से लथपथ। 5 किलो मीटर, 8 किलो मीटर बस भागे जा रहे हैं। मगर कहीं पहंुचते नहीं। बस भाग रहे हैं। कई बार लगता है आज की जिंदगी में हम कई बार बस भाग रहे होते हैं। मगर जाते कहीं नहीं। बस एक ही जगह पर दौड़ते रहते हैं। उसी तरह साइकिल चलाते लोग दिखे। कुएं से पानी खींचते दिखे। तकरीबन गांव की वो तमाम महिलाएं याद आईं जो हाथ से घर का काम निपटाया करती थीं। लगभग उसी कन्सेप्ट पर जीमालय में मशीनें मिलीं।
काश हम आज भी भागमभाग भरी जिंदगी में भी कुछ समय घर के कामों में हाथ बटाएं और मशीन पर कम आश्रित हों तो चर्बी तो यूं ही रफ्फू चक्कर हो जाएगी। साइकिल तो चलाना जैसे महानगर में पिछले जमाने की बात हो गई। बच्चे भी पास में भी जाना हो तो साइकिल की बजाए स्कूटी से जाना पसंद करते हैं। ऐसे में एक 13 14 साल का लड़का भी मिला जो दौड़ लगाते मिला। काश कि उसके मां-बाप उसे आउट डोर गेम खेलने को प्रेरित करते। साइकिल चलाने को कहते तो जीमालय की शरण में न जाना पड़ता।

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