Friday, December 6, 2013

वो जो कस्बा था



कौशलेंद्र प्रपन्न
 एक ओर सोन और दूसरी ओर नहर। दोनों के बीच में बलखाता कस्बा। तकरीबन तीन ओर नदी और बीच में बसा कस्बा ही था। पड़ोस में चिपनियां थीं जो कागज़, साबुन, डालडा सीमेंट बनाती थीं। जब इस कस्बे का पड़ोसी शहर जवान था यानी डालमियानगर में रौकनें थीं, सड़कें, अस्पतालें, स्कूल आदि थे। साथ ही लोगबाग भी ठीक ठाक ही थे। अस्सी के दशक में कस्बे का पड़ोसी धीरे-धीरे मरने लगा। मरने लगे लोग। उजड़ने लगीं रौनकें। क्योंकि अब डालमियानगर कारखाना की माली हालत खराब होने लगी थी। शुरू में आंशिक और फिर माह, माह से साल हो गए कारखाना बंद हो गया। लोगों में बेचैनी बढ़ने लगीं। कुछ लोग जो दूरगामी दृष्टि रखते थे वो लोग शहर छोड़कर रोजी की तलाश में बाहर चले गए। धीरे-धीरे इस कारखाने में काम करने वाले द्वितीय और तृतीय के साथ चैथी श्रेणी के कामगर जिनके लिए शहर छोड़ना मुश्किल था वो इसी शहर और पड़ोसी कस्बे में दूसरे काम करने पर मजबूर हो गए। किसी के परिवार सब्जी की रेड़ी लगाने लगी तो किसी ने छोटी मोटी दुकानें डाल लीं तो कुछ जो मास्टरी के कौशल रखते थे, उन्होंने टीचिंग शुरू कर दी।
पड़ोस का शहर अब वीरान हो चुका है। वो सड़कें, वो अस्पतालें, मंदिर, बैंक सब के सब अपनी अतीत की दास्तां बयां करती हैं। डालमियानगर से सटा कस्बा डेहरी आॅन सोन जो पहले कह चुका हूं। यह कस्बा दरअसल अपने पड़ोसी की वजह से गुलजार था। यूं तो इस कस्बे का नाम अंग्रेजों ने इसकी भौगोलिक स्थिति को देखते हुए ही रखा डेहरी आॅन सोन। ठीक ही तो है यह डेहरी, सोन नदी के तट पर बसा है। वही शोण भद्र जो मध्य प्रदेश के अमरकंटक पहाड़ से निकल कर बिहार के विभिन्न शहरों को पार करता पटना में गंगा में समाहित हो जाता है। सोनभद्र की कहानी भी दिलचस्प है। यह देश के चार नदों में से एक है। यह नदी नहीं है। दूसरा इसे ब्रह्मा का अभिशाप मिला हुआ है। दूसरी मजे की बात यह कि इसी सोन भद्र के किनारे डेहरी में कभी शरद्चंद ने ठहर कर अपना उपन्यास भी लिखा। इसका जिक्र विष्णु प्रभाकर अपने आवारा मसीहा में करते हैं।
बहरहाल कारखाने के बंद होने से इस कस्बे पर भी ग्रहण लगना शुरू हुआ। जिस कस्बे की गति, रौनक अपने पड़ोसी से थी वो कारखाने के बंद होने के बाद ठहर सी गई। जब डालमियानगर चालू हालत में था तब दिल्ली-कोलकाता लाइन पर चलने वाली डिलक्स अब पूर्वा एक्सप्रेस डेहरी रूका करती थी। जो सीधे-सीधे देश की राजधानी से जुड़ती थी। इधर कारखाना बंद हुआ उधर आस-पास के गांव के लोग इस कस्बे में विस्थापित होने लगे और इस कस्बे के लोग अपनी सुविधा और सामथ्र्य के अनुसार कस्बे को छोड़ने लगे। कभी इस कस्बे की आबादी तकरीबन दो या चार लाख हुआ करती थी। अब उसी कस्बे की आबादी तकरीबन 13 लाख का आकड़ा पार कर चुकी है। लेकिन दुकान, व्यापार और कमाई का कोई व्यावसायिक नियमित स्रोत नहीं है। कैसे यह कस्बा चल रहा है कई बार सोच कर ताज्जुब होता है। लेकिन जहां पहले बाइक, कारें बेहद कम हुआ करती थीं। सड़कों पर मोटर साइकिल गुजरने पर सब की नजरें उस ओर होती थीं। यदि चाहें तो पैदल इस कस्बे का एक चक्कर आप दो से तीन घंटे में काट सकते हैं। लेकिन अब यह चैहद्दी चैड़ी हो चुकी है। लोग सोन की ओर मकान बनाने लगे हैं। जो खुलापन इस शहर को प्रकृति ने दिया था वह अब लोगों के रहने की ललक और प्रोपर्टी सेल के जाल में फसता जा रहा है। इसकी प्राकृतिक छटा अब ज्यादा दिन मुक्त नहीं रह सकती। उस शहर को तब देखा था और अब देखता हूं तो लगता है क्या कोई कस्बा ऐसे भी शहर बनता है? जहां की अपनी पहचान बिकने लगे। जहां के लोग भी दूसरे महानगरों के मानींद अपना मिज़ाज बदल रहे हों तो उस कस्बे को, उसके पुराने लोगों को जी करता है पूछा जाए अपने कस्बे को उसी रूप में ही रहने दो ना। पर क्या यह व्यावहारिक है? उचित है?
भूमंड़लीकरण और आधुनिक माॅल के युग में उनसे इस तरह की चाक- चिक्य से दूर रहना का दुराग्रह कितना जायज है? उन्हें भी हक है कि वो भी अपने कस्बे में नामी गिरामी फास्ट फुड  का लुत्फ उठाएं। माॅल में शाॅपिंग करें और महानगरीय संवेदनशून्यता का जामा ओढ़ लें।
कौशलेंद्र प्रपन्न

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