Wednesday, October 16, 2013

रोंदू प्रकाशक जी


रोंदू प्रकाशक से हर लेखक को रू ब रू होना पड़ता है। तकरीबन हर प्रकाशक केवल और केवल अपना मुनाफा देखता और पकड़ने की कोशिश करता है। यही वजह है कि कई बार लेखक-प्रकाशक के बीच तन जाती है। यह तनातनी कई बार कोर्ट रूम तक पहुंच जाती है। याद करें न केवल निर्मल वर्मा की पत्नी बल्कि कई अन्य लेखक-प्रकाशक के बीच वाक-युद्ध बल्कि आगे चल कर कोर्ट चक्कर तक बातचीत पहुंची है। र्वायल्टी देने के नाम पर प्रकाशक रोंदू मुद्रा में आ जाते हैं। क्या आपने लिखा? यह किताब तो बिकती ही नहीं। गोदाम में ही पड़ी है। ऐसा क्यों नहीं करते इन्हें अपने रिश्तेदारों, दोस्तों आदि में बांट दें। कम से कम हमारी आल्मारी तो खाली होगी। 
लेखक-प्रकाशक को रिश्ता भी अज़ीब है। जब पहली पहली बार लेखक पांडुलिपि लेकर जाता है या भेजता है तब के संवाद काबिलेगौर है- इन किताबों के पाठक कहां हैं? कौन पढ़ेगा इन्हें? बच्चे तो बच्चे बड़े भी कहां पढ़ते हैं आज कल? साहब लेखक लेखक को ही पढ़ता है। उसी पर टिप्पणियों का सिलसिला चल पड़ता है। मैं पाठकों के लिए छापता हूं। लेकिन अब कविता कहानी पढ़ने वाले हैं ही कहां?
आप पाठ्य पुस्तक क्यों ही लिखते? बी.ए चार साल का हो गया है किसी भी विषय पर लिख डालिए छाप दूंगा। ऐसी किताबों की खपत भी है। कविता, कहानी से बेहतर है किखी किताब का हिस्सा हो जाएं।
ऐसे सुझाव प्रकाशक तुरंत देते हैं। साथ ही एक नत्थी सुझाव देंगे कि छाप दूंगा आपकी किताब लेकिन आप क्या सहयोग करेंगे?
कगज का खर्च आप वहन कीजिए छपाई मेरी ओर से। यानी 100, 200 कापी आपकी और पैसे भी आपके। मंजूर हो तो काम आगे बढ़ाएं। हां हमारे आस-पास ऐसे लेखक हैं जो अपनी जेब से किताबें छपवाने पर मजबूर हैं।

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