Wednesday, March 30, 2016

लेंस की नजर में होंगी स्कूली कक्षाएं



कौशलेंद्र प्रपन्न

दिल्ली के शिक्षा मंत्री ने अपने बजट भाषण में शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर अपनी और अपने मंत्रालय की चिंता एवं पहलकदमियों से अवगत कराया। उनका कहना था कि दिल्ली मंे शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए दिल्ली के सरकारी स्कूली कक्षाओं में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएंगे। साथ ही शिक्षकों की व्यवसायिक दक्षता को बढ़ाने के लिए उन्हें बेहतरीन प्रशिक्षण प्रदान किया जाएगा। मंत्री जी ने यह भी कहा कि शिक्षकों को प्रशिक्षण के लिए हाॅर्वर्ड, कैंब्रिज, आॅक्सफोर्ड जैसे विश्वविद्यालयों मंे  भेजा जाएगा। साधुवाद मंत्री जी, कम से कम किसी ने तो शिक्षकों की व्यावसायिक दक्षता विकास की ओर ध्यान ही नहीं दिया बल्कि उसके लिए बजट भी मुहैया कराया। प्रशिक्षण कौशल और उसकी गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए सरकार ने 9.4 फीसदी से बढ़ाकर राशि को 102 करोड़ कर दिया है। स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता को बेहतर करने के लिए 9,623 शिक्षकों की नियुक्ति की घोषणा भी की गई है। यह भी मौजू है कि दिल्ली में स्कूली स्तर पर वोकेशनल यानी व्यावसायिक प्रशिक्षण शिक्षण को ध्यान में रखते हुए रोहिणी और धीरपुर मंे संस्थान खोले जाएंगे। यह कार्य अंबेडकर विश्वविद्यालय के परिसरों का विस्तार देकर भी किया जाएगा। पिछले साल भी दिल्ली सरकार ने शिक्षा को ख़ासा महत्व देते हुए बजट में काफी उत्साहजनक बढ़ोत्तरी की थी। संकेत अच्छे हैं।
 इस बजट मंे शिक्षा की हालत सुधारने के लिए 10,690 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं। अब हमंे विस्तार इस बजट के धागों,बुनावटों को ,खोलने-समझने की जरूरत हैं। सरकार शिक्षा मंत्रालय दिल्ली सरकार की घोषणा है कि दिल्ली के तमाम सरकारी स्कूली कक्षाओं मंे सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएंगे। इस काम के लिए बजट मंे अलग से सौ करोड़ रुपए का प्रावधान है। स्कूली कक्षाओं मंे सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने को लेकर प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो अनिता रामपाल ने अपनी प्रतिक्रिया मंे कहा कि क्या आपकों शिक्षकों की प्रतिबद्धता पर विश्वास नहीं है? क्या आप मान कर चलते हैं कि शिक्षक नहीं पढ़ाते,नकारे हैं आदि। इस परिघटना को प्रकारांतर से देखने और शैक्षिक विमर्श को समझने की आवश्यकता है। क्या शिक्षा विमर्श और शिक्षण एक तकनीकी प्रक्रिया है? क्या शिक्षा किसी बनी बनाई इनपुट आउट सिद्धांत पर चला करती है? क्या शिक्षकों के श्रम को आंकड़ों और चंद छवियों में कैद कर समझा जाए सकता है। वैसे भी पहले क्या कम शिक्षकों की छवि को ख़राब करने और गैर जिम्मदार, नकारा आदि साबित करने की कोशिश होती रही है जो अब कक्षाओं मंे सीसीटीवी लगाने की कवायद की जा रही है। शिक्षण एक सृजनात्मक और कौशलों भरा कार्य है। इसमें पल पल की ख़बर लेते तर्ज पर जब शिक्षकों की हर गतिविधि को बतौर फुटेज तैयार किया जाएगा तब संभव है वह शिक्षक बाहर नहीं आ पाएगा जिसका सपना गिजू भाई, गांधी जी, टैगोर आदि ने देखी थी। कक्षा मंे कई बार पूर्व निर्धारित, पूर्व नियोजित तय पाठ्यचर्याओं से बाहर भी निकलना पड़ता है। कई बार अपनी पूरी तैयारी भी एक सिरे से ख़रिज कर नई चुनौतियांे और उत्सुकता को लेकर आगे बढ़ना होता है। वो शिक्षक जो अपनी पूर्व निर्धारित पाठ्ययोजनाओं पर शिक्षण करते हैं और वे जो पूर्व निर्धारित मंे भी समयानुसार एवं संदर्भानुसार रद्दो बदल के लिए तैयार होते हैं वह कक्षा-कक्षा ज्यादा जीवंत और प्रभावकारी मानी गई है। तर्क तो यह भी दिया जा सकता है कि यदि शिक्षक अपने कर्म के प्रति ईमानदार है तो उसे डरने की क्या आवश्यकता है। जैसे वो अभी पढ़ाता है वैसे ही तब भी पढ़ाए। लेकिन इस तर्क मंे वह शैक्षिक विमर्श और दर्शन शामिल है जहां स्वीकारा गया है कि कक्षा में बच्चा और शिक्षक सहज और स्वीकार्य स्वभाव से हों। क्या जब हर वक्त एक लेंस आपको घूरती रहेगी तब एक बच्चा या शिक्षक सहज तरीके से शिक्षण व बातचीत कर पाएंगे। अपने शिक्षण के तजर्बे के आधार पर कह सकता हूं कि दसवीं व 11 वीं में पढ़ने वाले बच्चे/बच्चियों के पास काफी उत्सुकताएं और सवाल होते हैं जिसका जवाब उन्हें घर में नहीं मिलता। समाज उसके उत्तर देने में दिलचस्पी नहीं दिखाता। यदि दिखाता भी है तो वहां एक बाजार है। बाजार की अपनी प्रकृति होती है। वो पीले जिल्दों वाली किताबों से ज्ञान बढ़ाता है। ऐसे में बच्चों की जिज्ञासाओं को शंात करने वाला यदि कोई साधन है तो वह शिक्षक है। मेरे पास कई बार बच्चे अपनी निजी बेचैनीयत को लेकर बात करने और राय लेने आया करते थे। जब उनकी उत्सुकता शांत हो जाती वे मन लगा कर पढ़ते थे। लेकिन क्या वह अनौपचारिक बताचीत की संभावना लेंस की मौजूदगी मंे बचती है? शिक्षा मंत्रायल की मनसा भी साफ है कि इंटरनेट के जरिए अधिकरियों,शिक्षामंत्री और अभिभावकों को उपलब्ध कराया जाएगा। इन फुटेज का भविष्य मंे किस किस कोणों से विश्लेषण और रिपोर्ट तैयार की जाएंगी इसका अनुमान मात्र लगाया जा सकता है।
यह तो ठीक है कि शिक्षकों को एक बार सेवापूर्व प्रशिक्षण प्रदान कर लगभग उन्हें छोड़ ही दिया जाता है। जबकि शिक्षा मंे कुछ न कुछ नए नए शोध,विधियों, प्रविधियों पर होते रहते हैं जिनसे शिक्षक अपने शिक्षण कौशल को मांज सकते हैं। लेकिन इसकी उम्मीद बहुत क्षीण नजर आती है। यूं तो अंतःसेवाकालीन शिक्षा प्रशिक्षण संस्थान भी हैं जहां विभिन्न बैनरांे के तहत प्रशिक्षण कार्यशालाएं होती रहती हैं। मसलन सर्व शिक्षा अभियान, राष्टीय माध्यमिक शिक्षा अभियान आदि। यदि गौर से देखें और कार्यशाला की योजना बनाने वालों और इनमें हिस्सा लेने वालों से पूछें तो बेहद निराशा होती है। क्योंकि मार्च से पहले कई सारे सेमिनार करा लेने हैं। आंकड़े दुरुस्त रखने हैं तो कार्यशालाएं मई जून और दिसंबर, जनवरी की छुट्टियों मंे आयोजित होती हैं। वहां प्रशिक्षण देने वाले को एक दिन पूर्व तक नहंी मालूम होता कि किस विषय पर उसे बोलना है। कहने को तो इसकी पूरी योजना तैयार होती है लेकिन समुचित तरीके से उसका संप्रेषण नहीं हो पाता। उस कार्यशाला से विभाग और शिक्षकों की क्या अपेक्षा है इसपर गौर नहीं होता बल्कि कार्यशालाएं हुईं यह दिखाने की जल्दबाजी ज्यादा होती है। स्वयं का अनुभव भी यही बताता है कि जब ऐसे कार्यशालाओं मंे जाने का अवसर मिला तो एक मोटेतौर पर विषय बता दिया जाता है। प्रतिभागी भी तैयार होकर आते हैं कि सिर्फ समय काटना है। आदेश का पालन होना चाहिए। कई प्रतिभागियों ने तो स्वीकारा भी कि आप ही हो जो खून पसीना बहा कर पढ़ा रहे हैं वरना तो लोग अपनी कथा कहानी सुना कर चले जाते हैं। हमें भी कोई उम्मीद नहीं रहती। लेकिन अनुभव बताते हंै कि यदि आपका कंटेंट रोचक और उनकी अपेक्षाओं के अनुकूल हैं तो वे रूचि लेकर सहभागी भी बनते हैं। उनकी आंखों में आंसू भी होते हैं कि हमंे ऐसे शिक्षक नहीं मिले जो इतनी बारीक और रूचिपूर्ण तरीके से पढ़ाए। ऐसे शिक्षकों की संख्या बेशक कम हो लेकिन अभी है ऐसे शिक्षकों की कमी नहीं है जो पूरे मनोयोग से पढ़ते और पढ़ाने में विश्वास रखते हैं। जिला मंडलीय प्रशिक्षण संस्थानों मंे शिक्षण प्रशिक्षण कार्य हो रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि उन्हें और कैसे सार्थक बनाया जाए और बच्चे सीखे हुए कौशलों मंे कक्षा तक ले जा सकें।
शिक्षा मंत्री जी ने बजट में शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए अलग से बजट का प्रावधान किया है। देखना यह है कि जिन शिक्षकों को हाॅर्वर्ड, कैंब्रिज आदि विश्वविद्यालयों मंे भेजा जाएगा उसके मापदंड़ क्या होंगे? यानी चयन प्रक्रिया क्या होगी? क्या वहां सीखी गई तालीम को शिक्षक अपने कक्षाओं में संप्रेषित कर पा रहा है या नहीं इसे जांचने के लिए क्या सरकार ने कोई ऐसी संरचना बनाने की योजना बनाई है। यदि नहीं तो शिक्षा मंत्री जी को इस पर भी काम करने की आवश्यकता है। चयन समिति की बिंदुओं पर शिक्षकों का चयन करेगी आदि सवालों पर शिक्षा विभाग को रणनीति बनाने की आवश्यकता पड़ेगी। क्योंकि शिक्षा मंत्री जी ने बजटीय भाषण में अपनी ंिचंता शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर प्रकट की है। आज की तारीख मंे बच्चे शिक्षा तो हासिल कर रहे हैं लेकिन वह दरअसल शिक्षा नहीं बल्कि कुछ कौशलों को प्राप्त कर रहे हैं। जीवन और शिक्षा के बीच की खाई को कैसे पाटें इसकी समझ कम से कम हमारी आज की शिक्षा प्रदान नहीं करती। इसी खाई को पाटने के लिए संभव है व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा दिया गया है। बजट में ख़ासकर 152 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। व्यावसायिक शिक्षा की कक्षाएं स्कूली स्तर पर ही दी जाएंगी। दूसरे शब्दों मंे यह मान लिया गया कि सभी बच्चे उच्च शिक्षा तक न तो जाएंगे और न ही उनकी परिस्थितियां इसकी इजाजत ही देती हैं। इसलिए उन्हें बीच राह में ही रोजगार के औजार दे दिए जाएं ताकि अपने जीवन का भरण पोषण कर सकें। प्रसिद्ध शिक्षाविद् अनिल सद्गोपाल का मानना है कि सरकार दरअसल अपनी जिम्मेदारियों से बचना चाहती है। वह सभी बच्चों को बुनियादी शिक्षा हासिल ही नहीं कराना चाहती। वह चाहती है कि जो पांचवीं के बाद काम पर लग जाएं। और इस दिशा में सरकार तेजी से आगे बढ़ रही है। प्रो सद्गोपाल ने हाल ही मंे एक गोष्ठी में कहा था कि अस्सी और नब्बे के दशक में जब सरकारें लगातार शिक्षा और सरकारी स्कूलों, विश्वविद्यालयों को नकारा और बेकार साबित करने में लगी थीं तब यही संस्थान, शिक्षक खामोश बैठे थे जिसका खामियाजा आज भुगतना पड़ रहा है। दूसरे शब्दों मंे कहंे तो शिक्षा का आधिकार अधिनियम लागू हुए आज तकरीबन पांच वर्ष पूरे हो गए। क्या वजह है कि अभी भी सरकारी आंकड़ों मंे महज अस्सी लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं और अन्य रिपोर्ट के अनुसार यह संख्या तकरीबन पांच करोड़ तक जाता है। व्यावसायिक शिक्षा दी जाए इससे किसे गुरेज हो सकता है। गांधी जी ने भी 1932 में वर्धा शिक्षा सम्मेलन में इसकी वकालत की थी कि हर हाथ को काम और हर हाथ को शिक्षा मिले। वहां हर हाथ का काम से प्रकारांतर से व्यावसायिक शिक्षा ही थी।



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