Friday, March 4, 2016

बजट बहस से बाहर शिक्षा


किसने कहा था इतनी उम्मीद लगा कर बैठो। बजट है इससे क्या आशा और क्या अपेक्षा। काहे पगलाए घूम रहे हो इत्ते-उत्ते मुंह फुलाए। कब तक सर्व शिक्षा अभियान,माध्यमिक शिक्षा और भोजन की चिंता में गलते रहोगे। वक्त बदल चुका। समय की मांग बदल चुकी है। काहे नहीं बुझाता है तुमको। एनजाओ,सीएसओ वाले तो ख़ामख़ा चिल्लाते ही रहते हैं। तुमी बोले ई लोगन को कभी बजट से खुश होते देखे हो जो ईब होएंगे। अभी भी शिक्षा,बुनियादी शिक्षा, आरटीई को ओढ़ बिछा कर बैठे हो। दुनिया कहां की कहां पहुंच चुकी। चांद को भी चुन फटक कर रहने लायक बनाने में लगे हैं और एक तुम हो कि शिक्षा पर ही रूसे बैठे हो। पिछले साल कौन सा हमने बुनियादी शिक्षा का ख़्याल रखा जो इस बरस बड़ी उम्मीद लगाए रहे। हमने भारत के इतिहास पहली दफा ही सही लेकिन शिक्षा को औकात तो दिखाई ही। सो इस बार भी हमने अपनी परंपरा को बनाए रखा। हम तुमें स्कील वाले मानें हुनरमंद बनाने पर तुले हैं और तुम हो कि वही पुराने तरीके से दौड़ना चाहते हो। तुम भी इन लोगन के कुकुर कांव में आ गए। हम तो तुमें और तुम्हारी बेरोजगार कुल दीपकों को रोजगार के लिए तेल मल रहे हैं लेकिन तुमरी माथा में जे बात काए ठहरे। लो न हमने दक्ष भारत अभियान को तेल पिला कर तगड़ा करने के लिए 17,000 करोड़ रुपए देने का प्रस्ताव किया है। सब कुछ ठीक ठाक चला तो पूरे देश में राष्टीय दक्षता प्रशिक्षण संस्थान पसर ही जाएंगे। पूरे देश भर में 1500 राष्टीय दक्षता प्रशिक्षण संस्थानों स्थापना की जाएगी। फिर तुम्हारे चेहरे पर खुशी नहीं आएगी यह पता है। क्योंकि तुम अभी भी स्कूल,काॅलेज के पीछे पड़े हैं। हमने तो जिस राज्यों और जिलों में नवोदय विद्यालय नहीं हैं वहां स्कूल भी तो खोल रहे हैं। तुम्हारे बच्चे वहां पढ़ेंगे। जो स्कूल से बाहर रहेंगे या पढ़ नहीं पाए तो उन्हें स्कील इंडिया की दौड़ में हांक देंगे।
गौरतलब है कि सरकार की मनसा वर्तमान शिक्षा की दशा दिशा तय करने में कोई गहरी दिलचस्पी नजर नहीं आती। पिछले साल भी सरकार की बजट में प्राथमिक शिक्षा और माध्यमिक शिक्षा विमर्श से बाहर ही रही। यदि पिछले सालों के बजट 2013-14,2014-15 पर नजर डालें तो पाएंगे कि तब सर्व शिक्षा अभियान को तकरीबन 31 हजार करोड़ रुपए मुहैया कराए गए थे जिसे लगातार वर्तमान सरकार घटाती चली गई। चालू वित वर्ष के बजट में 22,500 करोड़ रुपए प्रदान किए गए हैं। विद्यालयों के लिए मध्याह्न भोजन के लिए 9700 करोड़ रुपए का प्रस्ताव किया गया है। शिक्षा को जनसुलभ कराने के लिए सरकार ने इस बजट में अतिरिक्त 62 नए नवोदय विद्यालय खुलने की योजना बनाई है। गौरतलब है पिछले वित वर्ष में माडल स्कूल खोलने की घोषणा भी की गई थी। उनमें से कितने स्कूल खुले यह कौन पूछने वाला है। ठीक उसी तर्ज पर अब नवोदय विद्यालय खोलने की घोषणा की परतों को खोल कर समझने की आवश्यकता है।
पीछे की बजट में कम से कम बुनियादी शिक्षा को लेकर एक चिंता नजर आती थी लेकिन वत्र्तमान सरकार लगातार शिक्षा को महज रोजगार के साथ सरपट हांकने पर आमादा है। इसका प्रमाण यह है कि बच्चे बेशक कक्षा 1 से 5 वीं तक न पढ़ें उन्हें स्कील प्रदान कर रोजगार की राह पर चला दिया जाए। रोजगार मिले इससे किसी को गुरेज नहीं हो सकता। लेकिन शिक्षा की महत्ता का विकल्प के तौर पर रोजगार को नहीं माना जा सकता। हालांकि शिक्षा हासिल कर हर किसी को नौकरी चाहिए लेकिन क्या शिक्षा का लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ नौकरी के लायक बनाना भर है। संभव है इस सवाल पर आज की पीढ़ी सहमत हो क्योंकि उन्हें बाजार में रहना और बाजार पर ही निर्भर रहना है। लेकिन बाजार में खुद को बनाए रखने के लिए जिस प्रकार की दक्षता और क्षमता की आवश्यकता होती है उसके लिए सरकार और बजट तैयार नजर नहीं आती है। बच्चे प्राथमिक शिक्षा के बाद उच्च और उच्चतर शिक्षा हासिल करें इसकी योजना कम बच्चे 5 वीं के बाद ही नौकरी करने लगें के प्रति ज्यादा चिंतातुर है। यही वजह है कि स्कील इंडिया को अमली जामा पहनाने के लिए देशभर में 1500 संस्थानों की स्थापना की जानी है। इससे एक राह तो साफ नजर आती है कि हमारे बच्चों को रोजगारपरक यानी हस्तकौशल प्रदान करने की योजना है। गांधी जी ने 1932 वर्धा शिक्षा सम्मेलन में हर हाथ को काम और हाथ को शिक्षा की वकालत की थी। लेकिन उस सिफारिफ में बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से काटना नहीं बल्कि हुनरमंद बनाना था। स्कूल से छूट से बच्चों की चिंता इतनी भर है कि उन्हें काम सीखा कर जीवन के मैदान में उतार दिया जाए।
सरकार का दावा है कि देशभर में दक्षता विकास योजना के तहत अभी तक 76 लाख बच्चों को प्रशिक्षित किया जा चुका है। आने वाले दिनों में बजट की नजर से देखें तो एक करोड़ युवाओं को हुनरमंद बनाया जाएगा। गौरतलब है कि हुनरमंदी की झोली में बिजली, बड़ही,मोटर दुरुस्त करने, कम्प्यूटर ठीक करने, डेटा आॅपरेटर जैसे कौशल शामिल हैं। राजेश जोशी की कविता बच्चे काम पर जा रहे हैं अब ज्यादा प्रासंगिक हो जाएगा। बच्चे अपनी उम्र से पहले ही काम पर जाने लगंेगे। उन्हें घर परिवार चलाने की जिम्मेदारी के लिए तैयारी चल रही है। एक तो पहले से ही उच्च शिक्षा में प्रतिभागियों की कमी है आने वाले पांच दस सालों में स्थिति और भी बद से बत्तर हो सकती है। देश के तमाम प्रौद्योगिकी,तकनीकी,मानविकी संस्थाएं प्रोफेसर,शोधछात्रों की कमी का सामना कर रहे हैं। यदि प्राथमिक स्कूलों में शिक्षकों की कमी की बात करें तो स्वयं सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हर राज्य में कम से कम अस्सी हजार से लेकर 5 लाख तक के पद खाली हैं। जिन्हें भरा जाना आरटीई के अनुसार बेहद जरूरी है। लेकिन इन सब के बावजूद विभिन्न राज्यों में अनुबंधित शिक्षकों से स्कूलों को खींचा जा रहा है। स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर सरकार का ढुलमुल रवैया भी किसी से छूपा नहीं है। शिक्षा मित्र,पैरा टीचर आदि नामों से प्रसिद्ध हमारे अद्र्ध प्रशिक्षित शिक्षकों के मार्फत शिक्षा दी जा रही है।
प्रो अनिल सद्गोपाल इस प्रक्रिया को गंभीरता से देखते और व्याख्यायित करते हैं उनकी नजर में बुनियादी शिक्षा को नजरअंदाज कर सिर्फ बच्चों को कामगर बनाने की योजना है। शिक्षा को अस्से के दशक से ही बेचने और बदनाम करने की सरकारी पहलकदमियां चल रही हैं। दुखद बात यह है कि जब देशज स्तर पर सरकारी स्कूलों को बदनाम कर बेचने की प्रक्रिया चल रही थी तब तमाम शैक्षिक संस्थान के शिक्षाविद् और शिक्षाकर्मी मौन साधे बैठे थे। उनकी चुप्पी का ही परिणाम है देश के अधिकांश सरकारी संस्थान इस हाल में आ चुके हैं। शिक्षा जो कि हक़ की आवाज उठाने और शोषण के खिलाफ बोलने का जज़्बा पैदा करती है वही शैक्षिक संस्थानों में नकारखाने में तूती की तरह हो गई।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम बने भी आज तकरीबन छह साल हो चुके लेकिन स्थिति कोई ख़ास बदली हो ऐसा नहीं है। सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों की रिपोर्ट बताती हैं कि आज भी हमारे अस्सी लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। तो क्या उम्मीद की जाए कि वे अस्सी लाख बच्चे स्कील हासिल कर काम पर लग जाएंगे। क्या वे आत्महत्या या फिर गैर उत्पादक कामों में नहीं लगंेगे। सरकार की नजर में शिक्षा के मायने और दरकार बदल चुके हैं। उसकी नजर में कामगरी शिक्षा ही प्राथमिकता है। हर बच्चे पढ़ें और आगे बढ़ें यह नारा तो है लेकिन वहीं दूसरी ओर काम का विकल्प प्रदान करना कहीं न कहीं शिक्षा की धार को कुंद करना भी है।
सब पढ़ेंगे सब बढ़ेंगे यह सुनने में कर्णप्रिय है। लेकिन इसके निहितार्थ को समझने की आवश्यकता है। सब कैसे पढ़ेंगे जब स्कूल ही नहीं होंगे। जब स्कूल तो होंगे लेकिन वहां शिक्षक ही पांच होंगे उसमें भी दो जनगणना, बाल गणना,कार्यालयी कामों में झांेक दिए जाएंगे। तीन स्थायी शिक्षक और तीन अनुबंधित शिक्षकों के कंधे पर किस प्रकार की पढ़ने और आगे बढ़ने के सपने देखे जा रहे हैं। यह भी कितना मौजू है कि विभिन्न राज्यों में शिक्षकों को एक तो पूरा वेतन नहीं मिलता दूसरा तीन और छह माह पर वेतन मिलता हो तो ऐसे में किस प्रकार की शिक्षण प्रतिबद्धता की उम्मीद की जानी चाहिए। शिक्षक दरअसल वो नरम कड़ी होता है जिसे जब चाहा तबा दिया तब चाहा गैर शैक्षिक कामों में हांक दिया। शिक्षक ही है जो अपनी ही हक और आवाज को ताउम्र दबाए जिंदगी काट देता है और उससे पढ़े बच्चे आग चल कर उन्हीं पर शासन और हुक्म जारी किया करते हैं। कितना ही अफसोसनाक स्थिति है कि जिसे शिक्षक जीवन में कुछ बनने की तालीम देता है जब वह कुर्सी पर बैठता तब उन्हीं पर तोहमत मढ़ने से गुरेज नहीं करता।  

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