Friday, March 4, 2016

फिल्मांे की महिलाएं




फिल्में हर समाज और काल में आम जन को प्रभावित करती रही हैं। फिल्मों के सामाजिक दरकार भी समय और संदर्भ सापेक्ष बदलती रही हैं। राजा हरिश्चंद्र मूक फिल्मों से लेकर सवाक फिल्मों तक, ब्लैक एंड वाइट के लेकर डिजिटल फिल्मों तक के सफ़र में ठहर कर देखें तो पाएंगे कि समाज का प्रतिबिंब तत्कालीन फिल्मों में दिखाई देती हैं। आजादी पूर्व की फिल्मों के कथानक, परिवेश,संवाद आदि तत् संबंधी होती थीं। आजादी के बाद की फिल्मों के विषय, बोल, परिधान आदि भी बदले यह परिवर्तन भी लाजमी थी। महिलाओं की दृष्टि से फिल्मी जगत को समझने की कोशिश करें तो फिल्मों का एक बड़ा कालख्ंाड़ और भूमिका महिलाओं की स्थिति बदलाती हैं। एक दौर था जब फिल्मों में तथाकथित बड़े परिवार की लड़कियां नहीं आती थीं। बड़ी क्या आम घरों की महिलाओं को फिल्मों में अभिनय करने की आजादी नहीं थी। तब पुरुष ही महिलाओं की भूमिका किया करते थे। समय ने करवट ली और धीरे धीरे लड़कियों का आना फिल्मों शुरू हुआ। महिलाएं किस रूप में दाखि़ल हुईं यह भी एक दिलचस्प कहानी है। महज गाना गाने,ठुमका लगाने,मां या पत्नी की भूमिकाओं ने इन्हें चुना। सत्तर के दशक तक कथानकों में एक बड़ा परिवत्र्तन घटता है। महिलाएं आभूषण,वस्त्र आदि के आकर्षण से बाहर निकल अभिनय के समानांतर चुनौतियां देने लगीं।
अस्सी के दशक में अस्मिता पाटिल,शबाना आज़मी ने निश्चित ही यादगार अभिनय से अपनी पहचान बनाई। इन्होंने फिल्मों में महिलाओं की भूमिकाओं को तो रेखांकित किया ही साथ ही समाज में बढ़ रहे वर्चस्व को भी पर्दे पर उतारा। यदि फिल्मों के सामाजिक सरोकारों की ओर नजर डालें तो नाच गाने,मार-धाड़ से आगे निकल कर सामाजिक स्थितियों को भी पर्दे पर जी रही थीं। फिल्मों ने चाहते हुए भी हमारे समाज की चेतना को झकझोरना का काम किया है। समाज का एक बड़ी तबका जो जवान हो रहा था व कहें किशोर से युवा हो उन्हें ख़ासे प्रभावित किया। एक्शन हीरो से लेकर एग्री यंग मैन की छवि भी समाज में खूब चली। साथी दुखांत भूमिकाओं के लिए दिलीप कुमार,साधना,गुरुदत्त को आज भी हम भूल नहीं पाएं हैं। कहानियां और कहानियों को पर्दे पर जीवंत करने वाले कलाकारों की निजी जिंदगी जैसी भी रही हो किन्तु पर्दे पर उन्हें देखना दिलचस्प था। ठीक उसी तरह से महिलाओं की भूमिकाएं भी दिन प्रति दिन बदल रही थी जैसे आम जिंदगी में बदलाव घट रहे थे। परिवर्तन की सुगबुगाहटें महिला कलाकारों में भी दिखाई देने लगी थी।  
स्त्री विमर्श की एक दुनिया समानांतर रची जा रही थी। सावित्री बा फुले महिला शिक्षा के लिए संघर्ष कर रही थीं। वहीं समाज में शिक्षा और महिलाओं की जागरूकता में तेजी आ रही थी। बच्चियां घरों से निकल कर स्कूल जाना शुरू कर चुकी थीं। धीरे धीरे ही सही लेकिन शिक्षा और स्व अधिकार की ललक भी महिलाओं में जगने लगी थी। यह एक संक्रमण काल था जिसमें महिलाएं अपने चैका बर्तन से बाहर दुआर पर निकलने की कोशिश कर रही थीं। यह दृश्य फिल्मों से ओझल नहीं था। क्योंकि फिल्मों की नजर से सामाजिक बदलाव छुपे नहीं रहे। एक ओर प्रेमचंद के उपन्यासों,कहानियों पर फिल्में बन रही थीं वहीं टैगोर की रचनाओं को भी फिल्मों में चुना जा रहा था। गैर भारतीय भाषाओं मे लिखी जा रही रचनाओं और कथानकों पर फिल्में बनीं। लेकिन गौरतलब है कि आजादी पूर्व की कथानकों और फिल्मों में महिलाओं को रूढ छवियों में बंधी नजर आती हैं।
नब्बे के दशक के अंत अंत तक फिल्मों के कथानक और महिलाओं की प्रस्तुतिकरण में काफी बदलाव हुए। नाच गाने और ठुमके लगाने से आग बढ़ कर बैंडेड क्वीन,एलओसी,डोर,पिंजर,लज्जा आदि फिल्में आईं जिसमें समाज में महिलाओं की स्थिति को प्रकारांतर चित्रित करती हैं। वहीं 2000 और 2010 के बाद स्त्री विमर्श को आगे बढ़ाती फिल्में भी आईं जो बाजार और महिलाओं के अंतर्संबंध को उदघाटित करती हैं। कार्पोरेट, पेज थ्री, चांदनी बार, एनएच 8,मेरीकाॅम,नीरजा आदि ऐसी फिल्में हैं जिसमें हमारे समाज की महिलाओं की उलझनों को भी पकड़ने की कोशिश करती हैं। बाजार किस तरह से महिलाओं को महज वस्तु व विज्ञापन की तरह देखती है इसका भी उदघाटन हमें कई फिल्मों में मिलता है। समाज में जैसे जैसे महिलाओं की भूमिकाएं बदली


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