Tuesday, March 15, 2016

विस्थापन की जिंदगी


कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों बिहार के कुछ गांवों में जाने का मौका मिला। मैं तकरीबन बीस साल के बाद उस गांव में गया था। मेरे मन मस्तिष्क में उसी गांव की छवि बैठी थी जब मैं नब्बे के दशक में गया था। तब गांव में प्रवेश के पहले दो बड़े बड़े तालाब होते थे। वहीं गांव के दक्षिण भर तीन तालाब थे। उनमें पानी भी खूब रहता था। जब जाया करता था तब नहाना और खेल भी हुआ करता था। हां इस बरस तो गांव गया तो पहले दो तालाब नजर नहीं आए। तालाब की जगह पर एक पंक्ति में दुकानें नजर आईं। जब पूरा गांव चक्कर काट आया तो उन तीन तालाबों में से दो सूखकर समतल हो चुके थे। उस जमीन पर मजार की दीवार खड़ी थी और पास मंे ही मंदिर के चबूतरे नजर आए। एक जो तालाब सा दिखाई दे रहा था उसमें कूड़े, गांव के गंदे पानी और तमाम गंदगियों के अंबार में बजबजा रहा था।
हमारे गांव न केवल बदल गए, बल्कि डिजिटल भी हो गए। यह वहां पर खुली दुकानों को देख कर अनुमान लगाना कठिन नहीं था। लैपटाॅप लेकर बैठे गांव के बच्चे गाने- फिल्में मोबाइल में डाउन लोड करने के काम में जुटे मिले। यहां भी तो एक किस्म का बदलाव ही था। जहां कभी गांव में ढिबरी में पिताजी और चाचा ने पढ़ाई की। उसी गांव में इंवटर पर फ्रीज,पंखे,एलसीडी बड़ी स्क्रीन वाली टीवी लोगों के घरों मंे मिलीं। बदलाव तो था ही। बदलाव यह भी था कि खेतों की जगहें सिमट गई थीं। खेत काट कर प्लाट में तब्दील हो चुके थे। खेती की जगह पर दुकानें शोभा बढ़ा रही थीं।
कौन कहता है गांव पीछे हैं। गांव के लोगों के पास सुविधा और सुख के साधन नहीं हैं। अब के गांव कई शहरों और कस्बों को पीछे छोड़ने की होड़ में हैं। वहां के बच्चों के पास आज क्या नहीं है। महंगी गाड़ी,स्मार्ट फोन,सुंदर सुसज्जित कमरों वालं घर सब कुछ तो है। लेकिन यहां यह देखना जरूरी है कि उनके पास महंगी गाडि़यां, मोबाइल आदि कहां से आईं। गाडि़यों की अपनी कहानी है। गांव से यदि हाईवे निकल रही है, आधुनिकीकरण हो रहा है आदि तो सरकार ने उनकी जमीनें लेकर उन्हें मुआवजा दिया। बच्चों ने उन पैसों से गाडि़यां खरीदीं। शहर में मकान खरीदे। और तो और अमीरी के राह के अनवेशी हमारी युवा पीढ़ी ने अपने ही गांवों व शहरों में आ कर प्रोपर्टी डिलर के काम में लग गए। बजाए कि उन पैसों को बेहतर जगह लगाते उन्होंने अपने मां-बाप की भी अनसुनी की और आज महंगी गाडि़यों मंे फर्र फर्र दौड़ रहे हैं।
मेरे गांव में भी बोलेरो, इनोवा, फोरचूनर, डस्टर जैसी महंगी गाडि़यां सड़कों पर भागती नजर आईं। पूछने पर पता चला कि इतनी महंगी गाड़ी कहां से आई। तो जवाब था खेत सरकार ने ले लिए और मोटी रकम दी जिससे गाडि़यां आई हैं। मुझे समझने और इसे स्वीकारने मंे थोड़़ा समय लगा कि लोगों ने पैसों का इस्तमाल किस रूप में किया। हालांकि सुख भोगने और गाडि़यों पर घूमने का शौक सिर्फ शहरातियों का ही नहीं है बल्कि उस पर गांवों का भी पूरा हक है। लेकिन यह कैसा आनंद व सुख जो खेतों को बेच व पैत्रिक जायदाद को बेच कर मिली रकम को इस तरह से प्रयोग किया जाए।
गांवों से पलायन भी खूब हुए हैं। उस गांव के बेटे लुधियाना, पंजाब, दिल्ली,कोलकाता, बंग्लुरू आदि महानगरों में खपने की कोशिश में हाड़ गला रहे हैं। कोई कारखाने में काम कर रहा है तो कोई फल-सब्जियों की रेड़ी लगा रहा है। लेकिन शहर में रहने की जिद्द कह लें या गांव की सुविधाहीन जिंदगी से अजीज आकर गांव छोड़ने का निर्णय जो भी हो लेकिन यह निर्णय की घड़ी आसान नहीं रही होगी। विस्थापन के दौर से गुजरना एक बड़ी पीड़ा होती है। घर में किसी की मृत्यु भी हो जाए तो आप टिकट लेकर तुरंत शामिल नहीं हो सकते। यदि पैसे हैं तो कई सुविधाएं हैं किन्तु फल की रेड़ी लगा रहे  हैं तो रेलगाड़ी ही माध्यम है। कुछ राज्यों में जाने वाली रेलगाडि़यों की प्रतिक्षा सूची को देख लें तो अंदाजा लगा सकते हैं कि उस राज्य से कितनी भारी संख्या में पलायन हुआ है। इसका अंदाज तब भी लगाया जा सकता है जब होली दिवाली का मौसम आता है। महानगरों से लगातार भीड़ गांवों की ओर भागने लगती है। गोया यह शहर उनका नहीं है। गोया गांव से बिछुड़कर खुश नहीं हैं। मगर हकीकत यही है कि गांव,देहात कोई यूं ही नहीं छोड़ता। कोई यूं ही विस्थापन की जिंदगी नहीं चुनता।


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