Saturday, March 26, 2016

सेमिनारांे और गोष्ठियों का महीना मार्च



कौशलेंद्र प्रपन्न
फरवरी और मार्च ख़ासकर सेमिनारांे और गोष्ठियों का महीना होता है। यूं तो आप बजट का भी कह सकते हैं। कहने को तो बसंत और होली की भी कहा जा सकता है। लेकिन अकादमिक क्षेत्र मंे बात की जाए तो यह एक अकादमिक सत्र का अंतिम माह होता है। जो भी आपको बजट मिले थे उसे 31 मार्च से पहले खत्म करने होते हैं। यदि आपने खर्च नहीं किए तो वो पैसे वापस लौटाने होते हैं यह तो आप सभी जानते हैं। केंद्र को राज्य सरकारें भी मोटी राशि लौटाती रही हैं और उसे सुनने को मिलता है कि आप लोग काम नहीं करते। काम करते तो पैसे कैसे बचते। यह एक अजीब सा खेल है। जो लोग संस्थानों व दफ्तरांे में काम करते हैं वो इसे बेहतर समझ सकते हैं। वर्तमान में आपने कितना खर्च किया इसपर आगामी सत्र का बजट निर्भर करता है।
यह जानना भी बड़ा मौजू है कि आपको पैसे कब और कितने मिलते हैं। कल्पना कर सकते हैं कि जब आपको पैसे जनवरी के अंत व फरवरी के आखि़र में मिलेंगे तो उसे खर्च करना एक अगल सिर दर्द है। यदि आपके पास योजना नहीं है। कार्यक्रम की रूपरेखा नहीं है तो आप क्या करेंगे। आपको न चाहते हुए भी पैसे वापस करने होते हैं। उसपर आप पर आरोप लगता है कि आप तो मिले हुए पैसे ही खर्च नहीं कर पाते। आप काम ही करना नहीं चाहते आदि आदि। क्या यही सच है इन बजटों का? क्या वास्तव में हम इतने नकारे हो गए हैं कि कार्यक्रम की रूपरेखा और येाजनाएं नहंी बनाते। बनाते हैं पूरा बनाते हैं इस तोहमत से बचने के लिए विभागाध्यक्ष, संस्था प्रमुख आनन फानन में कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार कर उसे अमलीजामा भी पहनाते हैं। कई तो ऐसे घाघ होते हैं कि देखते ही देखते पैसे किन किन प्रोग्रामों में खर्चा दिखा देते हैं जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
बहरहाल काॅलेज, विश्वविद्यालयों मंे फरवरी से मार्च के बीच लगातार, एक के बाद एक सेमिनार आयोजित होते हैं। विभिन्न माध्यमों का इस्तमाल कर आमंत्रण भी भेज देते हैं। और वैसे ही शोध पत्रों की बारिश भी होने लगती है। नाम रखा जाता है नेशनल सेमिनार। इन सेमिनारों में शोध पत्रों के पाठ भी धड़ा धड़ होते हैं। साथ ही साथ पर्चा पाठकों को एक प्रमाण पत्र भी थमा दिया जाता है जिसे वो यूजीसी के नियमानुसार अंक भी हासिल कर लेता है। सच पूछा जाए तो पर्चे अंकीय बढ़ोत्तरी के मकसद से ज्यादा पढ़े हैं।
पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के केंद्रीय शिक्षा संस्थान, शिक्षा विभाग में आयोजित टीचर एजुकेशन एंड चैलेंजेज पर नेशनल सेमिनार था। उसमें पर्चा पढ़ने वालों की पठनीय कौशल का प्रदर्शन भी देखने को मिला। कुछ ने तो सिर्फ पीपीटी जो उन्होंने बनाया था उसका वाचन कर दिया। यदि पीपीटी का मकसद महज वाचन है तो यहां हमें सोचने की आवश्यकता है। दरअसल पीपीटी आदि सहायक सामग्री तो हो सकती हैं मुख्य नहीं हो सकतीं। मुख्य तो वक्ता ही होता है। एक प्रस्तोता की भूमिका और वाचक की भूमिका में बुनियादी अंतर है। लेकिन शोधकर्ताओं ने जिस शिद्दत से पीपीटी बनाने मंे अपनी शक्ति लगाई यदि उसका एक हिस्सा भी प्रस्तुतिकरण पर दिए होते तो ज्यादा प्रभावशाली हो जाता। वहीं हिन्दी वर्तनी की मानकता और देवनागरी लिपि विषय पर श्रीराम काॅलेज आफ काॅमर्स, दिल्ली विश्वविद्यालय में तीन दिवसीय सेमिनार में हिन्दी शिक्षा और शिक्षण की प्राथमिक कक्षायी चुनौतियां विषय पर बोलने का अवसर मिला। इस तरह की बेहद शुष्क और व्याकरणिक विषय पर कम ही सेमिनार होते हैं। वहां मालूम चला कि इस विषय पर 1986 में सेमिनार हुआ था और 2016 में हो रहा है।
विषय के चुनाव और विषय के वक्ताओं से भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि विषय पर विभाग व संस्था प्रमुख का खुद का क्या रूख़ है। निश्चित ही विभागाध्यक्ष अपने सहयोगियों से विमर्श करने के बाद ही विषय तय किया करते हैं। कइ बार विषय सुन और पढ़कर सोचने पर विवश हुआ जा सकता है कि विषय के चयन पर पर्याप्त मंथन नहीं किया गया। इन दिनों सेमिनार के कुछ प्रचलित विषय हैं मसलन मीडिया और समाज, मीडिया का समाज पर प्रभाव, छायावादी कविता और वर्तमान कविता, आज की कहानियों मंे स्त्री विमर्श आदि। क्या हम इन विषयों के साथ ही वर्तमान चुनौतियांे से रू ब रू होते समाज को नहीं जोड़ सकते। यदि हिन्दी व अन्य विषयों के विमर्श विषय पर नजर डालें तो लगता है इनपर पूर्व में भी कइ्र्र गोष्ठियां और पर्चे लिखे और पढ़े जा चुके हैं। हालांकि यह कोई कसौटी नहीं है विषय के चयन के दौरान। लेकिन इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि जिस विषय को सेमिनार के लिए चुना जा रहा है उसमंे देश में कितने आधिकारिक विद्वान हैं जो उसपर रोशनी डाल सकते हैं। क्योंकि शोध पत्र के साथ ही उस सत्र की अध्यक्षता भी तो करने वाला चाहिए। यह अलग बात है कि आज हर तथाकथित अध्यक्ष साहब हर विषय के सत्र की अध्यक्षता करने की पात्रता रखते हैं।
वर्तमान स्थिति में शिक्षा व साहित्य किस प्रकार हमारे समाज और युवाओं को रास्ता दिखा सकती है किस स्तर तक साहित्य एवं शिक्षा समाज का मार्गदर्शन कर सकती है इसपर भी विचार करने की आवश्यकता है। विषय के चुनाव के दौरान विषय से समाज यानी कम से कम पाठक वर्ग को किस स्तर तक सृजनशील बनाने मंे मदद कर सकता है आदि पर भी चिंतन की आवश्यकता है। सवाल उठाया जा सकता है कि क्या साहित्य मंे महज प्रयोगवाद,छायावाद, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, उत्तर आधुनिकतावाद आदि पर भी विमर्श करने से साहित्य के उद्देश्यों की पूर्ति हो जाएगी। क्या साहित्य महज कविता,कहानी,उपन्यास आदि के इर्द गिर्द ही सिमट जाता है? या साहित्य इससे आगे की यात्रा भी तय करता है।
वापस अपने विषय पर लौटें तो यही कहा जा सकता है कि जनवरी और फरवरी और मार्च माह में विभिन्न विषयों पर सेमिनार आयोजित होते हैं। हमें यह भी देखना और समझना होगा कि इन सेमिनारों का कितना इस्तमाल अकादमिक गुणवत्ता के लिए होता है। क्या महज आयोजन तक ही सीमित रहे या उससे आयोजक विभाग और संस्था भी लाभान्वित हुई। क्योंकि, अकादमिक विभागों की स्वयं की सृजनात्मकता और दक्षता वृद्धि के अवसर मिलने चाहिए। इस लिहाज से विचार करें तो हर सेमिनार के बाद विभाग की क्या समझ विकसति हुइ्र्र और उन प्रस्तुत पर्चों का इस्तमाल भविष्य में कैसे होने वाला है, इसकी भी योजना बनानी चाहिए। ऐसा न हो कि अन्य आयोजनों की तरह ही यह भी सिर्फ उत्सव और मिलन बन कर रह जाए।


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