Wednesday, February 17, 2016

कविता व रचना का भूगोल


जब भी कोई कवि कविता व कहानी लिखता है तब उसकी रचना में भूगोल साफ नजर आती हैं। यदि कवि अपनी रचना का भूगोल नहीं बना पाया तो एक अर्थ में वह कविता शायद पाठकों को अपनी ओर न लुभा पाए। बड़े से बड़ा कवियों की रचनाओं में एक ख़ास भूगोल तो हुआ ही करता है। यदि राजेश जोशी जी की कविता पढ़ें या मंगलेश डबराल या फिर विष्णु नागर की इन कवियों की खासियत ही यही है कि जब ये कविता लिख रहे होते हैं तब एक भूगोल भी रचा जा रहा होता है। इतना ही नहीं बल्कि इनकी कविताएं भूगोल के साथ ही वर्तमान चुनौतियों और राजनीतिक चैहद्दी भी बनाया करते हैं। यही वजह है कि जब हम राजेश जोशी की कविता दंगे के बाद को पढ़ते हैं तो लगता है यह आज की ही किसी दंगे के बाद की बात की जा रही है। बच्चे काम पर जा रहे हैं पढ़ते वक्त लगता है यह बात भी इसी सदी इसी समाज की तो की जा रही हैं। वहीं जब हम अज्ञेय की कविता संाप को पढ़ते हैं तो आज का समाज और नागर समाज के दोमुंहेपन से भी हम रू ब रू होते हैं। सच्चे अर्थाें में कवि अपनी रचनाओं में वत्र्तमान को तो जिंदा रखता ही है साथ ही आने वाले उजले दिनों के लिए एक रोशनदान भी छोड़ जाता है।
आज की कविताएं और कविताओं का भूगोल बहुत तेजी से बदला है बल्कि बदल रहा है। जिस तेजी से कविताओं के परिदृश्य बदले हैं उसी रफ्तार से कविताओं के सरोकार भी बदले हैं। हालांकि हर काल मंे रस रंग, प्रेम, शृंगार की कविताएं लिखी गईं हैं। तो साथ ही जायसी,कबीर जैसे विरोध के स्वर को बुलंद करने वाले गैर चारणीय कवियों ने बड़ी ही मजबूती से कविता के सार्वकालिक और सार्वदेशिक दरकारों को आगे बढ़ाया है। एक ओर चांद का मुंह टेढ़ा है, असाध्य वीणा, राम की शक्ति पूजा लिखी जा रही थी तो उसी के समानांतर सरोकारी कविताओं की सृजना भी हो रही थी।
जैसे जैसे तकनीक का विकास हुआ है वैसे वैसे हमारी कविता भी सोशल मीडिया पर रची जाने लगी। गैर जमीनी यानी वर्चुवल स्पेस में लिखी जाने वाली कविताएं संभव है आज लिखी गईं उन्हें पसंद करने वालों ने पंसद के बटन भी दबाया और आगे बढ़ गए। लेकिन अगले दिन उसे भूल जाते हैं। यहां पाठकों की भी कोई ख़ास गलती इसलिए नहीं है, क्योंकि उन्हें हर पल हर घड़ी दसियों पंक्तियां पढ़ने को मिल रही हैं। यह अगल विमर्श का मुद्दा है कि क्या हम देखने को पढ़ना मानें? क्या हथेलियों पर स्क्रीन को सरकाते हम वास्तव में पढ़ते हैं या बस कंटेंट देखकर लाइक बटन दबा कर आगे निकल जाते हैं। विभिन्न तरह के सोशल स्पेस में लिखी जाने वाली कविताएं और कहानियों की बात करें तो कविताओं की बढ़त साफ दिखाई देती है। इन सोशल स्पेस में रची जाने वाली कविताओं की दुनिया भी बड़ी ही एक रेखीय ही है। जिन्हें उस स्पेस के बारे में जानकारी है वो तो देख-पढ़ पाते हैं बाकी सब शून्य।
कई बार यह सवाल उठाया जा चुका है कि कविता और कहानी के पाठक कम हो रहे हैं। दूसरे शब्दांे मंे कहें तो पाठकों की कमी का रूदन अक्सर सुनने मंे आता है। लेकिन फिर एक सवाल बड़ा ही दिलचस्प उठता है कि जब पाठक ही नहीं हैं तो कवि या लेखक किसके लिए लिख रहा है। कौन है जो किताबें खरीद रहा है? कोई है समाज में जिसे किताबों से आज भी मुहब्बत है। वरना प्रकाशक हजारों की संख्या में किताबें क्यों छाप रहे हैं। इस ओर जब नजर दौड़ाते हैं तो पाते हैं कि लेखक,कवि, कथाकार लगातार विभिन्न विधाओं में लिख पढ़ रहे हैं और उनके पाठक भी हैं। यह एक उत्साह का विषय होना चाहिए। पिछले दिनों जिन प्रमुख किताबों पर देश भर में विमर्शकारों ने चर्चाएं कीं और उनकी नजर से किताबें पढ़ने योग्य लगीं उनपर नजर दौड़ाएं तो उनमें कथा, कविता एवं गैर कथा विधायी किताबें अपनी कथानक की वजह से पाठकों को लुभाने मंे सफल रहीं। एक ओर प्रभात रंजन की रचना कोठागोई की चर्चा की जाए तो जिस शैली और भाषायी चोले में एक काल खंड़ को जिंदा करने की कोशिश की गई उसे महसूसा ही जा सकता है और तारीफ ही की जा सकती है। प्रभात रंजन ने बड़ी ही साफगोई से अतीत मंे जाना,ठहरना और वहां से सकुशल वापस आने जैसे व्यापार को कुशलता से निभाया है। प्रभात रंजन ने वहां से अपने साथ लाए वहां की बोली-भाषा, भाषायी परिवेश को वत्र्तमान में खड़ा करने की कोशिश भी की है जिसे पाठकों ने हाथों हाथ सम्मान दिया है।

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