Wednesday, December 24, 2014

दरख़्त


वो जो सामने दरख़्त है
बचपन लपेटे खड़े है
कहते हैं
दो तीन सौ साल से यूं ही आशीष दे रहा है
अब जटाएं भी जमीन दोस्त हो चुकी हैं।
धागों की मोटी चादर में लिपटा यह दरख़्त
उम्मीदों, आशाओं की डोर से बंधा
सदियों से खड़ा
देख रहा है
पीढि़यां कहां की कहां गुजर चुकीं
कहीं जो होंगे
किसी वीतान में।
जब भी गुजता हूं पास से दरख़्त के
मुझे पास बुलाता है
कानों को पास लाने को कहता है
कहता है,
तू अभी बच्चा है
नहीं समझेगा कहां चले गए तेरे बुढ़ पुरनिए,
बस यूं समझ ले,
कहीं तो हैं जो देख रहे हैं।
सुनने की कोशिश में ज़रा और पास आता हूं
उनकी जटाएं छूती हैं गालों को
सहलाती उनकी जटाएं
पुचकारती हैं
कहती हैं
मेरा बच्चा मैं हूं यहीं के यहीं
तुम्हारा दादू हूं
रहूंगा यहीं,
रक्षा करूंगा तुम्हारी
क्योंकि रहूंगा सदियों सदियों तलक।
आज भी आंखें मूंदता हूं
दादू की बलंद आवाज़ कानों में मिसरी के मानिंद घूलती हैं
बच्चों को बताता हूं
कभी चलना
मेरे गांव मिलाउंगा
अपने पुरखे दादू दरख़्त से
बच्चे कुछ मजाकिए अंदाज़ में सुनते
फिर गुम हो जाते हैं आभासीय दुनिया में।

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