Tuesday, December 30, 2014

साहित्य की दुनिया और विभेदीकर


साहित्य शब्द सुनते ही हमारे जेहन में जिस तरह की छवि बनती है वह कविता, कहानी और उपन्यास की ही होती है। क्या साहित्य महज यही है या साहित्य की सीमा में और भी विधाएं शामिल होती हैं। साहित्य का अपना क्या चरित्र है और साहित्य व्यापक स्तर पर क्या करती है? इन सवालों पर विचार करें तो पाएंगे कि साहित्य का मतलब महज पाठ्यपुस्तकों में शामिल कविता और कहानी पढ़ाना भर नहीं हैं, बल्कि पाठकों को जीवन दृष्टि प्रदान करना भी है। जीवन मूल्यों और संवेदनशीलता पैदा करना भी है। साथ समाज में खास वर्गों के प्रति समानता का भाव जागृत हो इसकी भी गुंजाईश साहित्य में हो।
साहित्य का शिक्षा शास्त्रीय विमर्श करें तो पाएंगे कि साहित्य हमारी पूर्वग्रहों को भी अग्रसारित करने का काम करती है। यादि कहानी व कविता विधा को लें तो वहां भी कहानियां कुछ यूं शुरू होती हैं- एक समय की बात है। किसी गांव में एक ब्राम्हण होता था। उनके दो बेटे थे। बड़ा बहुत ज्ञानवान और छोटा नकारा। इन शुरूआती पंक्तियों में देख सकते हैं कि गांव में क्या ब्राम्हण ही होते थे। क्या उनकी बेटियां नहीं थीं। क्या उस गांव में अनुसूचित जाति व जनजाति के लोग नहीं रहते थे। इस तरह से कहानियों में लिंग, जाति, वर्ण आदि को लेकर एक खास विभेद स्पष्ट देखे जा सकते हैं। शिक्षा शास्त्र और शिक्षा दर्शन इस तरह की विभेदी शिक्षा के पक्षधर नहीं हैं लेकिन पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तक निर्माताओं ने इस तरह की कहानी और कविताओं को पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया है जिसे पढ़ कर बच्चों में एक खास किस्म के वर्गांे के साथ स्वस्थ धारणा का निर्माण नहीं होता। अपने से कमतर मानने की प्रवृत्ति का जन्म पहले पहल कक्षा में पैदा होता है। एक बुदेलखंड़ी, मालवा, भोजपुरी, डोगरी बोलने वाले बच्चों से सवाल हिन्दी में पूछे जाते हैं तब वे बच्चे जवाब जानते हुए भी भाषायी मुश्किलों की वजह से चुप रहते हैं। यदि उन बच्चों को कक्षा में उनकी भाषा और भाषायी दक्षता को लेकर मजाक बनाया जाता है तब साहित्य कहीं पीछे छूट जाता है। स्थानीय भाषा पर मानक भाषा सवार हो जाती है। यहां बच्चों की मातृभाषायी समझ को धत्ता बताते हुए मानक भाषा को अपनाने की वकालत की जाती है।
यदि राष्टीय पाठ्यचर्या 1977, 1990 व उसके बाद 2000 पर नजर डालें तो पाएंगे कि वहां चित्रों, लिंग, भाषा को लेकर संतुलित छवि नहीं मिलती। यही वजह था कि 1990 में मध्य प्रदेश में एक सर्वे किया गया कि जनजाति और महिलाओं को किस प्रकार पाठ्यपुस्तकों में दिखाया गया है। उस रिपोर्ट में पाया गया कि महज 0.1 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति की भागिदारी दिखाई गई थी। वहीं महिलाओं की उपस्थिति सिर्फ 0.2 प्रतिशत थी। एक और सर्वे और शोध पर नजर डालना जरूरी होगा जो 1994-95 में हुई। यह शोध दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षा विभाग में हुई थी। इस शोध में पांच हिन्दी भाषी राज्यों की कक्षा 5 से 8 वीं के पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन किया गया था। इस शोध का उद्देश्य था कि इन पाठ्यपुस्तकों में महिलाओं और जनजातियों को शामिल किया गया है। रिपोर्ट की मानें तो स्थिति बेहद चिंताजनक है। महज 0.00 और 0.1 फीसदी उपस्थिति दर्ज देखी गई थी।
सन् 1990 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की रोशनी में बने पाठ्यपुस्तकों पर भेदभाव-जाति, वर्ग, लिंग का आरोप लगा था। इन आरोपों से उबरने के लिए 1990 में आचार्य राममूर्ति समिति का गठन किया गया। उन्हें सुझाव देना था कि कहां कहां इस तरह की गलतियां हुईं हैं और उन्हें कैसे सुधारा जा सकता है। उस सुझाव के बाद बने पाठ्यपुस्तकों पर नजर डालें तो स्थिति और भी हास्यास्पद नजर आती है। महिलाओं की उपस्थिति तो बढ़ी लेकिन उनमें काम और पूर्वाग्रह पूर्ववत् बनी रहीं। महिलाएं बाल बनाती हुईं महिलाएं खाना बनाती हुई पारंपरिक कामों लीन दिखाई गईं।
सच पूछा जाए तो साहित्य की दुनिया इस प्रकार के विभेदीकरण का स्थान नहीं देती। लेकिन न तोसाहित्य और न साहित्यकार अपने पूर्वग्रहों से बच पाता है। कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में निजी मान्यताओं, धारणाओं और मूल्यों को साहित्य तो जीवित रखता है। यदि हमें कहें तो किताबें निर्दोष नहीं होतीं तो गलत नहीं होगा। साहित्य का मकसद पाठकों को एक बेहतर मनुष्य बनाने और अपने अनुभवों को व्यापक करने में मदद करना है।
साहित्य की दुनिया पर एक नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि साहित्य भी कक्षा कक्षा होने वाले विभेद के फांक को बढ़ाने वाला ही होता है। इसमें शिक्षक की भूमिका अहम हो जाती है। यदि शिक्षक इस तरह की स्थिति में स्वविवेक का इस्तमाल नहीं करता तब बच्चों में स्वस्थ विचार नहीं पहुंच पाते।

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