Tuesday, May 28, 2019

बच्चों के सवालः बड़े बेहाल


कौशलेंद्र प्रपन्न
पांच या छह वर्षीय बच्चे सवाल नहीं बल्कि अपने मन की बात किया करते हैं। उनके मन में जो उलझनें हैं उसका समाधान हम वयस्कों की दुनिया से मांगते हैं। हम उनके सवालों के साथ कैसा बरताव करते हैं यह हम पर निर्भर करता है कि हम उन्हें उनके सवालों के साथ एक गुत्थी के साथ छोड़ देते हैं या फिर समाधान की ओर ले जाते हैं। छोटे से छोटा बच्चा भी अपने परिवेश से प्रभावित होता है। इस परिवेश में वे वयस्क भी हैं जो भेदभाव, पूर्वग्रह, जाति-धर्म आदि जैसे वयस्कों की राजनीति भी शामिल है। इन राजनीति से बच्चे कैसे अलग रह सकते हैं। क्योंकि बच्चे किसी आकाश में पल-बढ़ नहीं रहे होते हैं। बल्कि इस क्रूर और कठोर समाज में जीया करते हैं। वह चाहे स्कूल जाते वक़्त बच्चों का समाज हो या फिर पार्क में खेलते हुए अंकल से मिला करता है। हमारा बच्चा समाज में जिन जिन से मिलता है, बातें करता है, वे तमाम लोग हमारे बच्चे की वैचारिक, भौगालिक, सांस्कृतिक समझ को कहीं न कहीं गढ़ने का काम करते हैं। यह सवाल ही लीजिए पुलवामा घटना के बाद मेरे के मित्र के छह वर्षीय बच्चे से बच्चों ने पूछा ‘‘तू मुसलमान है?’’ ’’तूझे तो पाकिस्तान चले जाना चाहिए।’’ वह बच्चा न तो ऐसे सवालों से कभी पूर्व में रू ब रू हो चुका है और न ही ऐसे सवालों के क्या जवाब देने हैं इसके लिए तैयार होता है। जब हम बड़े ऐसे सवालों के लिए तैयार नहीं होते तो वे तो आख़िर बच्चे हैं। लेकिन जो बड़ां की दुनिया में घट रही होती हैं उसकी छोटी ही सही किन्तु एक छटा व छाया बच्चों की दुनिया पर भी पड़ती है। इससे हमें बड़ी सावधानी से निपटना होता है। उस बच्चे के पिता के लिए यह सवाल से ज्यादा अपने और अपनी कौम के अस्तित्व पर सवाल था। जिसने पूरी जिं़दगी, पूरी पीढ़ी इसी जमीन पर गुजारी। पूरी शिद्दत से जिनकी पीढ़ियों ने लोकतंत्र में अपनी भूमिका निभाई। अचानक उनसे या उनके बच्चों को कोई कहें कि तू पाकिस्तान क्यों नहीं चला जाता तो उस बच्चे या वयस्क के लिए कितनी पीड़ादायक होती होगी इसका महज अनुमान भर लगाया जा सकता है।
पुलवामा की घटना हो या फिर बाबरी मस्जिद की घटना, या फिर जब भी दो देशों के बीच तनाव के माहौल पैदा हुए हैं तब तब ऐसे सवालों बार बार विभिन्न कोनों से उठने लगते हैं। यह सवाल नहीं बल्कि हमारी मनोजगत् और हमारी समाजो-मनोविज्ञान के भूगोल का परिचय देता है। साथ ही हमारी स्कूलिंग और सोशलाइजेशन कहां और किस स्कूल में हुआ है उसका सवाल खड़े करते हैं। हमारी स्वयं की प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूलिंग कहां और किस प्रकार हुए हैं यह ख़ासा अहम हैं। यह जीवन भी हमारे विचारों को आकार दिया करते हैं। वापस उस बच्चे के सवाल पर लौटते हैं। पापा हम क्या मुसलमान हैं? हमें पाकिस्तान क्यों जाना चाहिए। हमारी तो दादी, नानी सब यहीं हैं। बच्चे ऐसा क्यों बोलते हैं? आदि आदि। ये कौन लोग हैं या कौन सी विचारधारा है जो कोमल मनों में इस प्रकार की फांक पैदा करन पर आमादा हैं। हमें अपने बच्चों के इन सवालों से काफी संभल कर जवाब देने होंगे। बल्कि यही बच्चे जब बड़े होंगे तो संभव है इस किस्म के सवालों की कड़ी तब भी अटूट इन तक आ जाए। फिर वे अपने बच्चों के सवालों के साथ कैसे न्याय कर पाएं।
ऐसा क्या है इन सवालों में? वो क्या चीज है जो बार बार कुछ अंतराल के बाद अपना सिर उठाया करते हैं? हमें इन सवालों के मनोविज्ञान और समाज विज्ञान को समझना होगा। इन सवालों के पीछे हमारा खु़द का डर झलकता है। हम इन सवालों के ज़रिए कहीं न कहीं अपने मन में गहरे पैठे भय को ही निकाला करते हैं। साथ इस भय के मनोविज्ञान को समझकर दूर करने की बजाए उसे पालने में विश्वास करते हैं। दूसरी बात यह भी सच है कि हम यदि विवेकवान होते तो ऐसे सवालों की प्रकृति को समझते हुए अपने स्तर पर ही इनके समाधान तलाश कर खत्म कर चुके होते। किन्तु होता इससे उलट है। हम अपना विवेक नहीं लगाते बल्कि लगाना नहीं चाहते या फिर जो मंज़र दिखाए गए उसे ही सच मान कर एक पूर्वग्रह बना लेते हैं। बिना इतिहास, मनोविज्ञान का इस्तमाल किए जो भी छवि दिखाई या पेश की गई उसे ही अंतिम सच के तौर पर स्वीकार कर लेते हैं। बल्कि इससे एक कदम आगे बढ़कर अपनी ही पूर्वग्रहों को आगे सरका दिया करते हैं। और इस तरह से कड़ी टूटने की बजाए और मजबूत होती जाती है। इतिहास तो प्रत्यक्ष है ही कि हमने एक ख़ास कौ़म को आज़ाद के वक़्त जिम्मेदार ठहराया। जो सच्चाई एक दल या पार्टी ने हमारे सामने पेश किया उसे मान कर दूसरे पहलू को देखने और समझने की भी कोशिश नहीं की। जबकि विश्व का मानव विकास इतिहास हमारे सामने है कि कोई भी राष्ट्र किसी ख़ास कौ़म या जाति को किसी भी एक घटना का पूरा दारोमदार नहीं मान सकता।
हमने शुरू की थी उस बच्चे के सवाल से जिसने अपने पापा से पूछा था ‘‘क्या हम मुसलमान हैं? ये मुसलमान क्या होता है?’’
उसके पिता ने बताया कि इस बच्चे का बचपन लुधियाना में बीता जहां यह स्कूल जाया करता था वहां वह अरदास में भी शामिल होता था। स्वर्ण मंदिर में भी मत्था टेका। जहां अब रहा करता है दूसरे माले पर गणेश पूजा में शामिल हेता है। वहीं जब पास में जागरण होता है तो पूरी शिद्दत से पूरी रात जगा रहता है। कभी इसे इसका इल्म तक नहीं हुआ कि हम मुसलमान हैं। मुसलमान कोई अनोखी या अगल कौ़म होती है इसकी जानकारी तक नहीं है। इसे क्या बताएं कि मुसलमान क्या है और कौन होते हैं? कितना कठिन दौर जब तीन चार और इससे भी ज्यादा पीढ़ियां जहां रही हों अचानक रातों रात पाकिस्तान भेजने की ज़िद्द के आगे स्वयं शर्मिदा हो रहे हों। आख़िर क्यों जाएं पाकिस्तान या अपने मुसलमान होने पर उन्हें क्योंकर अफ्सोस या छुपाने की नौबत आए। सोचना तो उन्हें चाहिए जो इस प्रकार के सवालों को पैदा किया करते हैं।

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