Thursday, May 30, 2019

कागा बोली बोले



कौशलेंद्र प्रपन्न
कौवों को लेकर हमारा पूरा आर्ष ग्रंथ भरा हुआ है। लोकचेतना से लेकर दंतकथाएं तक कौवों की बातें, कौवों की कहानी कहती हैं।
कोई इस निगुर्ण को कैसे भूल सकता है, ‘‘कागा सब तन खाइओ, दो नयना मत खाइओ पीया मिलन की आस’’ आबीदा परवीन हों, कुमार गंधर्व हों या फिर अन्य शास्त्रीय गायक सब ने इसे गया है। जब भी इन्हें सुनते हैं वह कौवा याद आ जाता है।
वैसे तो देखने भालने में कोई सुंदर तो होता नहीं है किन्तु यह हमारे घरों के आस-पास ज़रूर सहज उपलब्ध होता है। गांव देहात में यह कथा भी सुनी जाती थी। कि जब सुबह सुबह आंगन में मुंडेर पर बैठ कोई कौवा बोलता था, तो पूछ बैठते थे ‘‘कौन आ रहा है? किसके आने की ख़बर दे रहे हो।’’ तब यही काला बदसूरत माने जाने वाला कौवा एक ख़बरनवीस की तरह होता था। एक डाकिए की भूमिका निभाता था।
अब न आंगन रहे और न मुंडेर। कहां बैठेंगे ये कौवे? बाजे बाजे तो शहर के कौवे बोलना भी नहीं जानते। चुपचाप बिजली की तार पर बैठ जाते हैं या फिर किसी पेड़ की डाल पर बैठे बैठे ताका करते हैं। इन्हें न पानी मयस्सर होता है और खाना। दर ब दर उड़ते रहते हैं।
रामायण में भी इनका जिक्र आता है शायद कागभुसुड़ी के नाम से। वहीं जब भी किसी श्राद्ध के पीड़ की बात आती है तब कौवों को बुलाया जाता है। कहते हैं। जब ये तृप्त हो जाएंगे तो हमारे पुरखों को भी शांति मिलेगी।
पशु पक्षियों से हमारा वास्ता बहुत पुराना रहा है। बल्कि मानव जाति के विकास इतिहास से जुड़ा है। हमें हमारे परिवेश में ज़िंदा जीव जंतुओं को बचाने की भी जिम्मेदारी है। इन्हें बचाएंगे तो शायद पर्यावरण के संतुलन को बना सकेंगे।

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