Friday, May 10, 2019

अंकों के पहाड़ पर बौनी परीक्षा



कौशलेंद्र प्रपन्न
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के पूर्व चेयरमैंन अशोक गांगुली का मानना है कि अंकों के बाढ़ को देखते हुए हमें अपने मूल्यांकन पद्धति का पुनर्मूल्यांकन करना होगा। बच्चों के मूल्यांकन की परीक्षा प्रणाली को विश्वसनीय और वैद्धयता प्रदान करने के लिए हमें प्रयास करने होंगे। वहीं प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो. कृष्ण कुमार का मानना है सौ फीसदी अंक हासिल करने की प्रवृत्ति को समझने की कोशिश करें तो यही निकल कर आती है कि हम कैसे प्रश्न पत्र बनाते हैं? और किस प्रकार के उत्तरों का मॉडल हमने तैयार किए हैं। इस मॉडल में बच्चे शत प्रतिशत शत ऐसे हासिल करते हैं कि वे रटे हुए तथ्यों को याद कर पुनर्प्रस्तुत कर देते हैं और उन्हें परीक्षा में सौ फीसदी अंक मिल जाते हैं। इस प्रक्रिया में सृजनशीलता और मौलिक चिंतन कहीं पिछड़ जाता है। जीत उसकी होती है जिसकी रटने की क्षमता और कुशलता ज्यादा है। कृष्ण कुमार का मानन है कि इस समस्या से निपटने का एक रास्ता यह हो सकता है कि हम प्रश्नपत्रों के निर्माण और उत्तर के मॉडल को नए सिरे से गढ़ा जाए। यदि कृष्ण कुमार जी के सुझाए प्रस्ताव की परतें खोलने की कोशिश करें तो पाएंगे कि 2008-9 के आस-पास सीबीएससी के प्रश्न पत्रों का स्वरूप बदला गया। इससे पूर्व सवालों की प्रकृति विश्लेषणात्मक होती थीं। यानी वे प्रश्न पत्र लेखन, चिंतन, सृजनशील मना बच्चों की दक्षता और कौशल का भी मूल्यांकन किया करता था। दीगर बात है कि तब इस प्रकार के प्रश्न पत्र पर देश भर में चर्चा हुई कि बच्चे प्रश्न पत्रों और परीक्षा में फेल होने की वजह से आत्महत्याएं कर रहे हैंं। शिक्षाविद्ों और सीबीएससी को इस गंभरी मसले पर विचार करना चाहिए। बच्चों को परीक्षा और अंक के भय से मुक्ति दिलानी ही होगी। इस बाबात सीबीएससी ने राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 को आधार बिंदु बनाकर प्रश्नपत्रों की प्रकृति में परिवर्तन किया। बहुवैकल्पिक प्रश्नों के चलन के साथ ही बच्चों के अंकों में उछाल आते सभी ने देखा। देखते ही देखते दसवीं और बारहवीं में बच्चों के प्रदर्शन और अंकां की बाढ़ सी आ गई। तब भी बच्चों में आत्महत्या की घटनाएं रूकी नहीं। फिर भी बच्चे अवसाद और कुंठा में जीने लगे। उनकी निराशा इस बात की थी कि अस्सी, नब्बे तो आए किन्तु पांच या दस अंक कम क्यों रह गए। इस बार तो 400 में 400 और 500 में 500 अंक भी बच्चों ने हासिल किए हैं। उन बच्चों से पूछिए जिनके एक या दो अंक से शत प्रति शत अंक आने से चूक गए। वे बच्चे बड़े निराशा में जी रहे हैं। बच्चे तो बच्चे मां-बाप भी मुंह फुलाकर इधर उधर टहल रहे हैं।
याद कीजिए अस्सी और नब्बे का दशक जब पूरे जिले और राज्य में मुश्किल से दस बीस बच्चों को साठ या सत्तर प्रतिशत अंक आया करते थे। उन बच्चों की तस्वीरें अख़बारों में छपा करती थीं। इन बच्चों को हीरों की तरह लोग जानने लगते थे। वहीं 2000 और 2010 के बाद तो नब्बे पार के बच्चों को भी कोई नहीं पूछता। न आईआईटी, न डीयू और न अन्य प्रोफेशनल संस्थान। इन्हें अपने मनमुताबिक कोर्स के साथ संतोष करना पड़ता है। नीट में भी इन्हें लगता है इनका भविष्य अधर में है। नब्बे पार और अस्सी के इस पार अटके हुए बच्चों से पूछिए और उनके मां-बाप से पूछें तो इनसे ज्यादा कोई और दुखी जन नहीं मिलेंगे। परीक्षा के रिजल्ट आने और एक दो माह तक ऐसे बच्चे चर्चा में रहते हैं उसके बाद ये बच्चे भी गुमनामी में चले जाते हैं। जब मामला गर्म होता है तब तमाम मीडिया वाले इनका साक्षात्कार लेते हैं। इनकी सफलता के मंत्र पूछते हैं। ये अपना भविष्य किस दिशा में बनाना चाहते हैं आदि सवालों के जरिए पूरे पन्ने और बॉक्स में छापा करते हैं। इनके आप्त वचन को प्रेरणा स्रोत की तरह पेश किया जाता है। कैसे इन्होंने ख्ुद को सोशल मीडिया से दूर रखा, कहां से कोचिंग लीं, किस स्कूल में किस टीचर ने ज्यादा मदद की आदि आदि सवाल पूछ कर उसे रेखांकित कर छपने के बाद ये कहां जाते हैं इसकी फॉलो अप स्टोरी कम नहीं देखी और पढ़ी जाती है।
परीक्षा की प्रकृति और उसके चरित्र को तो समझने की आवश्यकता है ही साथ ही हमें परीक्षा के उद्देश्य को भी रेखांकित करने की ज़रूरत है। हम क्यों बच्चों का मूल्यांकन करते हैं? क्यों हमें परीक्षा लेने की आवश्यकता पड़ती है आदि। इसका सीधा जवाब है बिना कारण के कार्य नहीं होते। शिक्षा दी जा रही है तो उसका क्या असर हुआ? बच्चे कितना सीख रहे हैं इसे जांचा भी जाना चाहिए। हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि बच्चों को विषयवार तालीम दी जा रही है उसमें से बच्चे कितना ग्रहण कर पा रहे हैं। क्या बच्चों के सीखने-सिखाने में कोई बाधा तो नहीं है किन्हीं वजहों से बच्चे सामान्यतौर पर सीख नहीं पा रहे हों। ऐसे में शिक्षा की मूल प्रकृति पर भी विमर्श करने की आवश्यकता पड़ेगी। क्या हम शिक्षा के माध्यम से सिर्फ विषयों की समझ विकसित करना चाहते हैं या फिर उन विषयों का हमारे आम जीवन में कोई उपयोगिता भी है? क्या हम इतिहास, समाज विज्ञान, विज्ञान व भाषा, गणित को अपनी जिंदगी में शामिल कर और बेहतर बना सकते हैं। शायद सत्तर या अस्सी के दशक में हमारा ध्यान विषयों के साथ ही बच्चों के सर्वांगीण विकास पर केंदीत था। जबकि 1985 के राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा पुनरीक्षा 1988 के दस्तावेज को देखें तो यह एनसीएफ मानता है कि बच्चों को प्राथमिक स्तर पर भाषा, गणित आदि की समझ विकसित करनी चाहिए। ख़ासकर कक्षा एक से पांचवीं तक में भाषा, गणित, विज्ञान और समाज विज्ञान की शिक्षा दी जाए। वहीं यह दस्तावेज छह कक्षा से आगे अन्य विषयों को भी शामिल किया जाए। 1988 की पुनरीक्षा एनसीएफ मानता है कि कला के जरिए प्राथमिक और उच्च कक्षाओं में बच्चों को शिक्षा दी जाए। देश के ऐतिहासिक धरोहरों के बारे में भी बच्चों को जानकारी दी जाए। इस मसले पर एनसीएफ 1988 का विशेष जोर है। इन्हीं चिंताओं को 2005 के एनसीएफ में भी स्थान दिया गया है। गौरतलब है कि 2008-9 में सीबीएसई ने उक्त एनसीएफ का आधार बनाकर परीक्षा के प्रश्न-पत्रों के निर्माण संबंधी संस्तुतियों को आधार बनाया था। एनसीएफ 2005 के जुड़े नेशनल फोकस ग्रुप ऑन एक्जामिनेशन की संस्तुतियों को आधार बनाकर सीबीएससी ने परिवर्तन किए किन्तु वह किस स्तर तक कारगर हुआ इसका विश्लेषण किया जाना चाहिए।
शिक्षाविद्ां को मानना है कि बहुवैकल्पिक प्रश्न पत्रों में रटने और स्मृतिआाधारित कौशल की ज्यादा आवश्यकता पड़ती है। जिनकी स्मरण शक्ति अच्छी है वे बच्चे इन प्रश्न पत्रों में अधिकाधिक अंक हासिल कर लेते हैं। इन प्रश्न पत्रों में सृजनात्मकता, स्वतंत्र चिंतन और मौलिक चिंतन की संभावना को कम करती है। यही वजह है कि भाषा के पर्चे में भी बच्चे नब्बे पार अंक तो प्राप्त कर लेते हैं किन्तु स्वंतंत्र रूप से भाषा के अन्य कौशलों लेखन,पठन-समझ आदि के स्तर पर पिछड़ते नजर आते हैं। क्योंकि जब हमने भाषा के प्रश्न पत्र को वैकल्पिक बनाया तो वहां चार उत्तरों में से एक सही उत्तर को छांटना होता है। लेकिन जब मौलिक चिंतन और लेखन अभिव्यक्ति की क्षमता का विकास नहीं के बराबर हो पाता है। नेशनल एचिवमेंट सर्वे, पीसा, डाइस फ्लैस रिपोर्ट, असर आदि की रिर्पोट बताती हैं कि हमारे बच्चे भाषा में लिखना-पढ़ाने कौशल में पीछे रह जाते हैं। जहां एक ओर भाषा स्वंत्रत और मौलिक चिंतन को बढ़ावर देती हैं वहीं गणित तर्कपूर्ण चिंतन और मंथन दक्षता का विकास करते हैं।
वर्तमान अंकीय प्रकृति को बढ़ावा देने वाली परीक्षा प्रणाली कहीं न कहीं बच्चां के स्वतंत्र और मौलिक चिंतन के संवर्द्धन में मददगार साबित होने की बजाए हानिकारक ही हो रही हैं। सिर्फ अंकों के पहाड़ खड़ा करना हमारा मकसद न हो बल्कि अंकों के साथ ही उसी के अनुपात में बच्चों को अपने विषयों की समझ स्तर भी विकसित हो। मूलतः परीक्षा हमारी समझ और अवबोधन के स्तर की जांच भी करती है ऐसा माना गया है। यदि यह मकसद है तो हमें उसी के अनुसार प्रश्न पत्रों के निर्माण की रणनीति भी तैयार करनी होगी। हम परीक्षा और मूल्यांकन से क्या हासिल करना चाहते हैं इसमें भी स्पष्टता लाने की आवश्यकता है। एक ओर विषयी समझ और कौशल की आवश्यकता हक़ीकत है तो दूसरी ओर अंकों की दुनिया भी उतनी साफ और कठोर है। यदि बच्चा कम अंक जिसे अस्सी से नीचे भी मान सकते हैं उन बच्चों को तथाकथित प्रसिद्ध कॉलेज में दाखिला नहीं मिल पाता। ऐसे बच्चे सरकारी कॉलेजों के समानांतर चल रही निजी कॉलेजों की ओर शिक्षा पाने के लिए भागते हैं। दोनों ही कॉलेजों में फीस एक बड़ी चुनौती नजर आती है। जो बच्चे मोटभ् फीस दे सकते हैं वे वहां दाखिल हो जाते हैं। बाकी बच्चे कहां जाते हैं, किन अंधेरे में रह जाते हैं इस ओर भी हमें सोचने की आवश्यकता पड़ेगी।

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