Monday, May 13, 2019

शिक्षक के कंधे पर लोकतंत्र का महापर्व संपन्न



कौशलेंद्र प्रपन्न
लेकतंत्र का महापर्व व कहें त्यौहार (निर्वाचन आयोग से द्वारा प्रदत्त विज्ञापनों के अनुसार) त्योहार संपन्न हुआ। तकरीबन दो माह चले इस त्योहार में विभिन्न राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दलों ने न जाने किसको क्या नहीं कहा। इतिहास के मरे मुर्दें उखाड़े। तोर मोर छोर किया। किसी ने चड्ढी के रंग तक देखकर बता दिए। वहीं कई तो राजनेता ऐसे भी रहे जिन्हें शायद चुनाव खत्म होने के बाद अपने बयानों पर शर्म आए। किन्तु शर्म मगर उन्हें नहीं आती। हर पांच साल का तजर्बा है उनके पास। चुनाव खत्म, सारी रंजीशें खत्म। वही राजनेता शाम में किसी होटल या पार्टी में गलबहियां करते भी मिलेंगे। शायद अनुमान लगा सकते हैं वे आपस में शाम में क्या बात करते होंगे।
‘‘छोड़ यार वो मंच था। मंच पर बहुत सारी बातें बोली जाती हैं। और बता बेटा क्या कर रहा हैं आज कल?’’
‘‘लेकिन आपने तो इस बार मुझे क्या क्या नहीं कह दिया।’’
शायद इसी किस्म की बातें होती होंगी। या फिर जो कमजोर राजनेता होंगे वे मुंह सुजा लेते होंगे। मुझे ऐसा बोला वैसा बोला। ऐसे में मंजे हुए कलाकार कहते होंगे यार तुम्हें अभी और सीखने की ज़रूरत है। देखा नहीं फलां राजनेता ने कैसे अपनी जिंदगी बचाने का पूरा माला उन्हें पहना दिया। क्या उन लोगों ने कभी मंच पर किसी को सुनाने से छोड़ा या पीछे रहे। तुम हो कि मुंह फुला कर बैठे हो। ऐसे तो हो गई राजनीति।
 इस त्योहार में कई सारे हजारों नहीं बल्कि लाखों लोगों के श्रम शामिल हैं। उनमें भी हमारे प्राथमिक स्कूली शिक्षक/शिक्षिकाएं। इन्हें तो मार्च से ही चुनावी ड्यूटी में स्कूलों से बाहर निकाल दिया गया था। कुछ अप्रैल से चुनावी प्रक्रिया से जुड़ गए थे। तीन चार कार्यशालाएं कराई गईं। कैसे मतदान कराएं। क्या तरीका अपनाएं। किस प्रकार की दक्षता आपमें हो आदि आदि। आपने सोचा न होगा कि जब एक स्कूल से कोई दो चार शिक्षक चुनावी ड्यूटी पर काम कर रहे थे तब उनकी कक्षाओं के बच्चे क्या करते होंगे? यह भी कोई सवाल है? बच्चे तो बच्चे हैं। कोई भी हांक सकता है। अंजु, मंजु, राकेश महेश, आरिफ कोई भी। लेकिन यह कोई भी बस बच्चों को बांध कर रख सकता है। उन्हें पढ़ाना ज़रा कठिन है। एक तो उनकी खुद की कक्षा उस पर दूसरे शिक्षक की कक्षा अनुमान लगाएं एक कमरे में कम से कम साठ सत्तर बच्चे हो गए। उन्हें पढ़ाएंगे या फिर घेर कर रखेंगे। इन बच्चों को कम से कम डेढ़ माह तक अपने शिक्षक नियमित नहीं मिल पाए। और दस मई से स्कूल की छुट्टियां हो गईं। अब बच्चे इन्हें जुलाई में मिलेंगे। जुलाई के दूसरे हप्ते से बच्चों की परीक्षा यूनिट टेस्ट शुरू हो जाएंगी। उन यूनिट टेस्ट में बच्चों का प्रदर्शन कैसा होगा इसका अनुमान आप लगाएं। सब हमीं नहीं बताएंगे।
हर पांच साल पर या फिर बीच बीच में भी चुनावी ड्यूटी में शिक्षकों को लगा दिया जाता है। इन्हें सम्मानित करते हुए कि आप शिक्षक हैं। पढ़े-लिखे हैं। समझदार किस्म के इंसान हैं। आप ही इस काम के लिए उपयुक्त हैं। चलिए चढ़ जाएं शूली पर। आप मना नहीं कर सकते। यह राष्ट्रीय पर्व है। आएं मिल कर उत्सव मनाएं। हर पर बीमार मां हो या पिता। बच्चा दूधमुंहा हो तो हो। आपको छुट्टी नहीं मिल सकती। अवकाश की तो सोचना भी मत।
हमारे शिक्षक हाल में संपन्न चुनाव के दौरान एक दिन पहले आधी रात तड़के उठकर सुबह चार या पांच बजे वोटिंग सेंटर पर पहुंच गए। उफ्! कहानी थोड़ी पीछे लेकर चलते हैं। एक दिन पूर्व इन शिक्षकों को मुख्य केंद्र पर मशीन, कागजात आदि लेने थे। जहां लंबी लंबी कतारें थीं। कतारों में खड़े खड़े पैर दुखने भी लगे थे। लेकिन बिना उफ् तक किए चुनाव के त्योहार के लिए पंक्ति में लगे थे। किसी तरह सारा समान ढोकर देर रात लौटे। सुबह वोट डालने जहां आप जाते हैं। इस बार में दिल्ली सोती रही। तकरीबन साठ फीसदी वोट ही डाले गए। बाकी के वोट कहां गए? हालांकि सरकार ने बड़े बड़े विज्ञापन लगाए थे ‘‘ वोट डालना है जरूरी, फिर शिमला मसूरी’’ लेकिन बिना शिमला मसूरी गए लोग घरों में बीस डिग्री एसी कर सोते रहे। रंगीन अख़बारी पन्ने पलटते सोशल मीडिया पर रूझान चाटते, खिसकाते रहे। लेकिन वोट डालने नहीं गए। वहीं हमारे शिक्षक अह्ले सुबह उठ कर तड़के वोट मशीन आदि चेक कर बैठ गए।
बदइंतज़ामी की जहां तक बात है तो देर मध्य रात्रि घर लौटे शिक्षक बताते हैं कि तेरह मई को तीन बजे, दो बजे, एक बजे रात लौटे। क्यों भाई वोटिंग तो शाम छह बजे संपन्न हो गए थे। फिर यह रात के एक या दो क्यों बजे घर लौटने में? उनका कहना था। हम मशीन आदि लेकर वापस सेंटर पर गए जहां कोई इंतजाम नहीं था। कोई व्यवस्था नहीं थी। न कोई पंक्ति और न कोई सुनने वाला। हम मशीन को शोनू की तरह गले लगाए बैठे रहे। कोई तो हो जो हमारा नंबर पुकारे और हम शोनू को सौंप कर घर लौटें। रात में घर वापसी का कोई भी इंतजाम नहीं किया गया। अकेली महिलाएं अपने परिचित सहमित्रों के साथ घर लौटीं। मशीन की खराबी तो एक कहानी है ही। साथ ही जहां नर्सरी की आयाएं नियुक्त की गई थीं वहां उनके खाने पीने का भी कोई मुकम्मल इंतजाम नहीं था।
जो भी हो शिक्षक न हों तो यह पर्व अधूरा सा है। आप इसे फीका भी कह सकते हैं। लोकतंत्र के इस महापर्व को मुकम्मल अंजाम तक पहुंचाने में लाखों शिक्षकों ने अपनी ऊर्जा, ताकत, समय लगाया। पता नहीं इन्हें कोई धन्यवाद कहेंगा या नहीं। इसका शुक्रिया अदा कौन निज़ाम करता है। वैसे भी ये प्राथमिक स्कूल के शिक्षक ठहरे। कहां जाएंगे मुंह फेर कर। अगली बार फिर फरमान जारी कर बुला लेंगे। इन फुफाओं, ताउओं को। 

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