Wednesday, March 27, 2019

चुनावी मौसम में ख़बरों से दूर...चलिए कोई किताब पढ़ी जाए


कौशलेंद्र प्रपन्न
पत्रकार एवं सामाजिक चिंतक रवीश कुमार बड़ी ही शिद्दत से गुज़ारिश करते हैं कि इन दो माह यदि हम टीवी यानी न्यूज चैनल और अख़बार पढ़ना बंद कर दें तो बेहतर हो। इसके पीछे तर्क देते हैं कि जब ख़बरों में से सूचना और विश्लेषण गायब हो जाए तो बेहतर है ऐसी ख़बर को न देखा जाए और न पढ़ें। शुक्रिया रवीश जी कम से कम कोई तो है जो आगाह करने की हिम्मत रखता है। जब सबलोग कहें कि ख़ामोश रहो। सवाल करना क्या ज़रूरी है। ऐसे दौर में कोई तो है जो बोलने और सवाल करने की प्रकृति और सहज दर्शन को समझाने की कोशिश कर रहा है।
चुनावी बयार ज़ोरों पर है। क्या अख़बार और क्या न्यूज चैनल हर जगह ख़बर के मायने बदल चुके हैं। अख़बारों पर नज़र डालें तो बीस और तीस पेज में से अधिकांश पन्ने राजनीतिक ख़बरों से रंगी नजर आती हैं। राजनीतिक में से भी चुनावी ख़बरें तैरती मिलेंगी। विश्लेषण तो इन अख़बारी ख़बरों की भी होनी चाहिए। शायद आज नहीं तो कल कोई तो व्यक्ति या संस्था यह काम करेगी। कितने पन्ने चुनावी ख़बरों में रंगे गए। इन चुनावी ख़बरों की रफ्तार में क्या मुख्य पन्न और क्या आख़िरी पन्ना आद्यांत चुनावी घटनाएं, घोषणाएं, बयान, टूटना, जुड़ना आदि ख़बरों से भरी होती हैं। कई प्रमुख घटनाएं और ख़बरें ऐसे में पन्नों पर आने से रह जाती हैं। इनमें सामाजिक, शैक्षणिक, भौगोलिक आदि को शामिल कर सकते हैं।
यही हाल न्यूज चैनलों का भी है। जिस भी न्यूज चैनल को खंघालिए हर जगह चुनावी बाजार लगा है। कहीं वाद विवाद, कहीं प्रवचन, कहीं भविष्यवाणियों के पत्ते खोले जा रहे हैं। कहीं सुग्गा वाचन कर रहा है आदि आदि। इनके बाजार में वाचल वक्ता प्रमुख दलों के चैनलों पर खखार रहे होते हैं।
एकबारगी मन करता है कि अख़बार लेने बंद कर दिए जाएं। न्यूज चैनल को हमेशा के लिए गला घोट कर चैन से कोई किताब पढ़ी जाए। कोई साहित्य या रूचिकर काम किए जाएं। हम जिस समय में अख़बार पढ़ने या फिर न्यूज चैनल देखा करते थे। उस वक्त संभव है अपने प्रिय से बातचीत की जाए। जिनके लंबे समय से बात नहीं हुई। जिनके हम मिले नहीं ऐसे कुछ काम किए जा सकते हैं। किताबें पढ़ना थोड़ा श्रमसाध्य काम है। धैर्य और रूचि की भी बात है, लेकिन कोशिश की जा सकती है। 

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