Thursday, March 14, 2019

प्लेटफॉम और हम



कौशलेंद्र प्रपन्न 
प्लेटफॉम नंबर एक से आठ और सोलह के बीच के फासले को कभी देखने को मिला हो तो आप बेहतर समझ सकते हैं कि हम कहां हैं। ख़ासकर मैं बात कर रहा हूं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की। एक ओर प्लेटफॉम नंबर एक है जहां के लोगों के पहनावे, बोली भाषा, झोला, झक्कर सब अलग होते हैं। देखने भालने में भी अलग होते हैं। भीड़ भी थोड़ी अलग सी होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो इलीट किस्म की कह सकते हैं। यू नो!!!
वहीं प्लेटफॉम नंबर आठ से सोलह तक के यात्री, भाषा-बोली, पहनावे, खान-पान, झोला-झक्कर आदि भिन्न मिलेंगी। धकीयाते हुए। ठेलते हुए। लाल और पीली साड़ी में लिपटी बहुरिया मिलेगी। अपने पी के इंतजार में। उसके साथ थैला, कोक की बॉटल में पानी, प्लास्टिक का झोला आदि आदि। जगह मिली तो चूड़ा, तिलकूट आदि का नास्ता करते लोग मिलेंगे। 
स्टेशन पर पूरा देश नजर आता है। जिस प्लेटफॉम पर जहां की ट्रेन आया करती हैं वहां की संस्कृति, खान-पान, पहनाव नजर आएगा। अभी भी आठ और सेलह नंबर के प्लेटफॉम पर लगने वाली ट्रेन में स्लीपर का हाल ज्यादा बदला नजर नहीं आएगा। खिड़कियों से झांकती आंखें, बच्चों के कपड़े, आंखें वैसी की वैसी दिल्ली को आंखे भर कर समा लेने की ललक नजर आएंगी। 
अंतर सिर्फ इतना नजर आएगा जब आप एसी त्री या टू में जाएंगे तो सवारी जो कभी स्लीपर में यात्राएं किया करती थी वो अब टू या त्री में चलने लगी है। जो जेनरल में चला करते थे अब वो स्लीपर में आए गए हैं। सो मंज़र लगभर समान है। स्लीपर में जैसे झोला, टीन का ट्रंक, बड़ी टीवी आदि पहले ठूंसे हुए नजर आते थे वो अब त्री टीयर में नजर आएंगी। नैन नक्श वहीं हैं। अब हैं तो हैं। 
स्टेशन कई बार ज़िंदगी के बडे़ दर्शन से रू ब रू कराया करता है। जहां हर कोई अपनी अपनी ट्रेन के आने के इंतजार में बैठे हैं, लेटे हैं। गपियां रहे हैं। प्लेटफॉम पर थूक रहे हैं। 

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