Sunday, March 31, 2019

यैसे और इस उम्र में जाना साथी

ये तो ठीक नहीँ किया। कुछ कहा भी नहीँ। कहूँगा, किसी दिन बैठेंगे फिर बातें करूँगा। कितनी सारी बातें थीं तुम्हाते पास कहने को,मगर अनकहे तुम्हारे ही साथ चले गए। हम कितने दिल से कंजूस हैं कि जो बात कहनी है उसे काँख में सुदामा की तरह दबा के रखते हैं। मगर हम भूल जाते हैं कि हमारे दोस्त कृष्ण नहीं रहे जो मन की बात व भाव समझ सकें।
तुम जिस तरह गए वो स्वीकार नहीं हो पा रहा है। कोई संकेत, न आवाज़ कुछ तो इशारा किया होता।मगर कुछ नहीँ। शनिवार क्या आया हम सब पर भारी पड़ा। यैसा भी क्या काम का दबाव था कि कुछ कह न सके। कुछ साझा भी नहीँ कर पाए। बस रूठ कर चले गए।
जब सिद्धार्थ गए थे तब अपने पीछे बच्चा, बीवी छोड़ गए थे। वैसे ही तुम्हारे पीछे भी सब छोड़ गए। घर पर तुम्हारा बच्चा माँ से पूछ रहा था माँ रो क्यों रही हो? माँ इस किस्म के सवालों से रोज़ रु ब रु होगी।
दोस्त बहुत याद आवोगे। जब भी भाई!!!!! शब्द।
हम कितने ही शब्द, रंजिश, ख़फ़ा, दिल में पिरो कर जीते हैं। जबकि मालूम किसी को नहीँ कब कौन हमारे बीच से चला जायेगा। सारी रंजिशें यहीं सिर पटकती रह जाएगी

1 comment:

Unknown said...

सत्य ! जिसे न सहना आसान है, न ही सहना। ये दुनिया रंगभूमि है सर ! हम सब अपना रोल(भूमिका) अदा करने की कोशिश भर कर पाते हैं। एक निर्धारित अवधि के बाद सबको साथ छोड़ जाना है। हम चाहे जितनी योजनाएं बना लें, अगले पल क्या होना है, कुछ खबर नहीं। इन अनिश्चितताओं के बावजूद निश्चित भविष्य की जद्दोजहद में हम सब अपने वर्तमान को न्योछावर करते चलते हैं। जिंदगी के खेल में हम सब भाग ही तो रहे हैं। चंद लम्हों के लिए कभी कभार गेंद अपने पास आएगी और हम गोल दागे सकेंगे। पूरा जीवन इसी तरह गेंद और गोल की प्रतीक्षा और प्रयास में गुजरता जाता है। मुट्ठी कितना भी सख्त हो, जीवन रेत की तरह फिसलता जाता है। हम वक्त की गति से पंजा लड़ाते हुए आखिरकार थक-हार कर विदा हो लेते हैं।

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