Tuesday, April 18, 2017

अवसाद, उदासी और शिक्षा


अवसाद, उदासी, अकेलापन, दुःिंचंता, निराशा आदि जिस नाम से भी इस अवस्था को पुकारें किन्तु यह मानसिक स्थिति बहुत तेजी से युवाओं और प्रौढ़ों को अपने गिरफ्त में ले रही है। वैश्विक स्तर पर नजर दौड़ाएं तो स्थिति और भी भयावह दिखाई देती है। हाल ही में गुरूग्राम के एक बहुराष्टीय कंपनी में कार्यरत महिला कर्मी का कूद कर जान दे देना अवसाद की मनोदशा का महज एक तस्वीर भर नहीं है। बल्कि इससे पहले भी अवसाद की चपेट में आकर कई व्यक्यिं ने जिंदगी की डोर बीच में भी छोड़ दी है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे अवसाद कहें या फिर आमजन की भाषा में अकेलेपन व उदासी का सबब किन्तु व्यापक स्तर पर निराशा एवं घोर उदासी जान ले लेती है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है यह हम बचपन से पढ़ते और रटते बड़े हुए हैं। फिर क्या वजह है कि बड़े होने के बाद व्यक्ति इतना एकांगी, अकेला और उदासी में डूब जाता है कि उससे समाज, परिवार दूर चला जाता है और वो हमसे काफी दूर। यह सवाल एक नागर समाज के सामने बड़ी चिंता के तौर पर उभरी है। यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2017 को अवसाद, उदासी से मुक्ति के तौर पर सात अप्रैल को घोषित किया है। वैश्विक स्तर पर लाखों की संख्या में युवा एवं प्रौढ़ महिला एवं पुरुष अवसाद के घेरे में हैं। इन्हें अपनी भावनाओं, संवेदनाओं को प्रकट करने का मौका नहीं मिलता। इस तरह के लोग भीड़ में होते हुए भी निपट अकेला महसूस करते हैं। घर परिवार में होकर भी उदास और निराशा में खुद को पाते हैं। शिक्षा इस तरह के लोगों को कितनी मदद करती है इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
शिक्षा यदि जिंदगी की तालीम दे पाती तो संभव है कोई इस तरह अपनी जिंदगी से मायूस होकर उम्मीद की डोर नहीं छोड़ सकता। वास्तव में वर्तमान शिक्षा कुछ दक्षताएं ही पैदा कर पाती हैं जिसके बदौलत व्यक्ति अपनी रोजीरोटी कमा पाता है। तनाव व एकाकीपन एवं आम जिंदगी के दबाव को कैसे सहा और समायोजन स्थापित की जाए इसकी समझ शिक्षा नहीं दे पाती। यूं तो शिक्षा दर्शन और दाशर्निकों ने जीवन और शिक्षा को एक साथ लेकर चलने और समझ की वकालत की है। किन्तु स्थितियां विपरीत हैं। हमारी अपेक्षाओं पर बाजार और प्रतियोगिताएं सवार हैं जो तय करती हैं कि हमारी जिंदगी की प्राथमिकताएं क्या होंगी। हमारे जीवन में आनंद किस प्रकार के होंगे। बाजार और वैश्विक प्रतियोगिताओं के दबाव में हमारे अपने जीवन के लक्ष्य भी नए तय किए हैं। इस चुने हुए लक्ष्यों में तनाव, एकाकीपन स्वभाविक है। जब तक हम परिवार और समाज से कटेंगे नहीं तब तक तय लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएंगे। बहुराष्टीय कंपनियां यदि आपको लाखों का पैकेज देती हैं तो आपसे आपके निजी समय चुरा लेती हैं। कब आप खाना खाएंगे कब आप घूमने जाएंगे यह सब बाजार और कंपनी तय करती है। बाजार निजी स्वतंत्रता और निजता के लिए केई स्थान नहीं देती। बल्कि उसे समय और टारगेट के अनुसार काम मिलना चाहिए। यही वो दबाव है जिसमें आज हमारी पीढ़ी जी रही है। शिक्षा दरअसल न केवल दक्षताओं का विकास करती है बल्कि संवेदनाओं को परिष्कृत भी करने का काम करती है। लेकिन आज शिक्षा में संवेदनाओं और भावनाओं का कोई स्थान नहीं है। बाजार शिक्षा के मापदंड़ कर रही है। तय कर रही है कि आज शिक्षा किस दिशा में और किस तरह की दी जानी चाहिए।
शिक्षा का मकसद बच्चे के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना रहा है। इस विकास में तकनीक, संवेदना, सहभागिता आदि भी शामिल है। शिक्षा और हमारी जिंदगी से जो चीज तेजी से गायब हो रही है वह है संवेदना और सहभागिता। हम जिस कदर असहिष्णु हुए हैं, जिस तरह साझा संस्कृति से दूर हुए हैं यह बहुत साफ तौर पर देखा और महसूस किया जा सकता है। हमें नागर समाज के जीवन में गहरे पैठ चुकी उदासी और एकाकीपन के समाधान के लिए गंभीरता से विमर्श करना होगा। क्योंकि अवसाद व उदासी जिस तेजी से महानगर, शहर और कस्बों में फैल रही है यह शुभ संकेत नहीं है। महानगरों में तो एकाकीपन के मायने समझ आते हैं क्योंकि व्यक्ति की जिंदगी की शुरुआत सुबह दफ्तर और शाम दफ्तर से लौटने में ही खत्म हो जाती है। इतना समय और क्षमता भी नहीं बची रहती कि अपने दोस्तों या परिवार के सदस्यों से मिल सकें। यह प्रकारांतर से हमें अकेलेपन की ओर धकेलती है। हम अपने खालीपन को बाजारीय सामानों और अट्टहासों और खोखली हंसी से भरने की कोशिश करते हैं।
मानवीय संवेदनाओं और स्पर्श जिस शिद्दत से हमें आनंद और अपनेपन के एहसास से भर देती है वह सोशल मीडिया पर उपलब्ध लाइक्स और कमेंट्स से कहीं ज्यादा प्रभावी और लाभकरी होता है। किन्तु अफ्सोसनाक हकीकत यही है कि हमने अपनी निजता और मानवीय संवेदनाओं को बाजार के हवाले कर दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यूं ही वर्ष 2017 को अवसाद व उदासी से निराकरण के तौर पर घोषित किया है। आज की तारीख में यदि किसी व्यक्ति व समाज को किसी चीज की आवश्यकता है तो वह है सुख, शांति और अपनों का साथ। बड़ी साफगोई से बाजार इन्हीं चीजों में सेंध लगाती है बल्कि लगा चुकी है।
शिक्षा के लक्ष्यों को मानवीय जीवन से जोड़ने वाले घटकों को बिना ठीक किए यह संभव नहीं है। अध्यापक वह प्रमुख घटक है जो कक्षा में बच्चों के साथ अधिकांश समय रहता है। बच्चों की दुनिया को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाला व्यक्ति कोई होता है तो वह शिक्षक है। यदि वह जीवन और समाज के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण पैदा कर सके तो बच्चों के लिए सबसे बड़ी घटना हो सकती है। यहां एक दिक्कत यह है कि कई बार शिक्षण अपने पूर्वग्रहों से बाहर नहीं आ पाता और वही दृष्टिकोण प्रकारांतर से बच्चों में अनजाने ही हस्तांतरित हो जाते हैं।

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