Monday, January 2, 2017

समंदर को मालूम है


फिर भी बार बार
किनारों पर सिर फोड़ता सदियों से लेटा है
वहीं के वहीं
बस लहरें तेज उछाल मारती
किनारों से टकरातीं।
कभी सुस्ताने की इच्छा भी नहीं होती,
रात दिन चारों पहर
पछाड़ खाता,
टकराता रहता है।
बार बार मन करता झकझोरा कर पूछूं उससे
क्यों जी कभी सोते नहीं
क्भी जब भी देखो टकराते रहते हो,
दर्द नहीं होता,
मलाल भी नहीं
कि बार बार किनारों से टकरा कर क्या होता है हासिल?
कभी कभी विकराल हो जाते हों
गोया गुस्सा हो अपनी ही लहरों से
फेंक आते हो किनारों पर
पर यह क्या किनारे उसे अपनाते नहीं
वापस लौट आती हैं तुम्हारी ही गोद में।

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