Tuesday, January 10, 2017

अगर आप पढ़ते नहीं कोई किताब....


कौशलेंद्र प्रपन्न
किताबें तो पाठकों के लिए ही होती हैं। पाठक किताबों के लिए। पुस्तकालय विज्ञान के ज्ञाता और भारतीय संदर्भ में जिन्हें पितामह माना है एस आर रंगनाथन ने यह स्थापना की थी कि हर किताब पाठकों के लिए है और हर पाठक के लिए किताबें होती हैं। किताबें पाठकों के बीच से यदि नदारत हो रही हैं तो इसकी छूटी हुई कड़ी की पहचान जरूरी है। एस आर रंगनाथन ने यह भी कहा था कि पुस्तकालय एक संवर्धनशील संस्था है जो निरंतर वृद्धि करती है। लेकिन आज के संदर्भ में देखें तो पुस्तकालय हमारी आम जिंदगी से कटती ही जा रही हैं। मॉल्स, फास्ट रेल, शॅापिंग कॉम्पलेक्स आदि का निर्माण हो रहा है लेकिन एक अदद पुस्तकालय हमारी चेतना से छूटती जा रही है।
किताबों का महाकुंभ नई दिनों दिल्ली में लगा है। इस महाकुंभ में देश-विदेश के पाठक रोजदिन स्नात हो रहे हैं। लेखकों, साहित्यकारों, कवियों के लिए मिलन स्थल में तब्दील हो चुका यह मेला सच पूछें तो किताबों के खरीद फरोख्त से ज्यादा मिलने जुलने के महा अवसर में परिवर्तित हो चुका है। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि किताबें कितनी खरीदी और पढ़ी जाती हैं। यूं तो पाठकों के हाथों में विभिन्न प्रकाशन घरानों की थैलियां टंगी हैं जिनमें कहानी, उपन्यास, निबंध, यात्रा वृतांत आदि की किताबों से अटी हुई हैं। इस मेले में सबके अपने अपने मकसद हैं सबकी अपनी अपनी रूचियां हैं। कोई लेखक से मिलने भर की तमन्ना पाले इत्थे उत्थे भटक रहा है तो कोई लेखक-प्रकाशक की कड़ी में स्वयं को जोड़ने की जुगत में है।
लेखक-प्रकाशक-पाठकों के बीच पढ़ने की लालसा भी बढ़ती नजर आ रही है। उससे भी कहीं आगे बढ़कर देखें तो अपनी दो चार किताबों की प्रतियां हाथ में लिए विमोचन के लिए लेखक दर ब दर भटकते हुआ भी नजर आ जाएंगे। हर लेखक,कवि, साहित्यकार की दिली ख्.वाहिश है कि उसकी किताब इस पुस्तक में मेले में लोकार्पित नहीं हुई तो उसका जीना बेकार है। लोकार्पण का सुकुचित स्वरूप हमें किसी भी पुस्तक मेले में साफ देखने को मिलते हैं। वह लोकार्पण से ज्यादा कवर पेज की मुंह देखाई सी होती हैं। उसपर किताब पर बोलने वाले कोई खास तैयारी व पढ़कर नहीं आए हुए होते हैं। शीर्षक देखकर और ज्यादा हुआ तो फ्लैप पर लिखी कुछ पंक्तियों को पढ़कर बोलने की संस्कृति अधिक दिखाई देती है। सवाल यह उठ सकती है कि इस लोकार्पण के निहितार्थ क्या हैं? किसको क्या हासिल होता है? आदि। पाठक तो इस लोकार्पण प्रक्रिया में दर्शक भर की भूमिका निभाता है।
किताबों के जानकार और किताबी दुनिया को करीब से समझने वाले प्रकाशक, लेखक, समीक्षकख् पत्रकार आदि मानते हैं कि किताबें कभी खत्म नहीं होंगी। किताबें के स्वरूप बेशक बदली हुई होंगी लेकिन किताबें का अस्तित्व रहेंगी। ज्ञान और सूचना को कंटेनर बदल सकता है लेकिन उसकी मांग खत्म नहीं होगी। विमर्शकार मानते हैं कि पन्ने दर पन्न पलटने के दिन बेशक लद सकते हैं लेकिन किताबों की दुनिया हमारे बीच बनी रहेगी। याद करें अस्सी का दशक और नब्बे का दशक जब कम्प्यूटर का प्रवेश किताबी और हमारी जिंदगी में हो रहा था। हम डर रहे थे और आवाज बलंद कर रहे थे कि किताबें मर जाएंगी। किताबों का स्थान तकनीक ले लेगा आदि। लेकिन क्या ऐसा शत प्रति शत हुआ? क्या किताबें नहीं छप रहीं हैं? छप रही हैं बल्कि पहले से ज्यादा रोचक और रंगीन कलेवर में छप रही हैं। जिस रफ्तार और कम समय में छप रही हैं इसका हमने अनुमान भी नहीं लगाया था। हजारों हजार की संख्या में सुरूचिपूर्ण तरीके से किताबें छप रही हैं और अपने पाठकों के हाथों में भी आ रही हैं। हां अंतर यह आया है कि मुद्रित के साथ ही इलेक्टॉनिक फार्म में भी वेबकास्ट, टेलिकॉस्ट हो रही हैं। किताबें छपते छपते ऑन लाइन भी उपलब्ध करा दी जाती हैं। इसे हमसब किताबों के वैश्विक व्यक्तित्व कहें तो कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।
किताबें छपती और कहां चली जाती हैं इसका अंदाजा लगाना कई बार भारी काम लगता है। जानकार बताते हैं कि किताबें अधिकतर लेखक और लेखक मित्रों और पुस्तकालयों में पनाह लेती हैं। माना तो यह भी जाता है कि वे किताबें बेहद सौभाग्यशाली होती हैं जिन्हें पाठक मिलते हैं। जिन्हें बंद आलमारी में कैंद से मुक्ति मिलती है।किताबें पढ़ने के लिए होती हैं न कि आलमारी में शोभा बढ़ाने के लिए लिखी छापी जाती हैं। पाब्लो नेरूदा की एक पंक्ति किताबों और पाठकों के रिश्ते का सारा मंजर बयां करता हैआप धीरे धीरे मरने लगते हैं, अगर आप करते नहीं कोई यात्रा, अगर आप पढ़ते नहीं कोई किताब...।


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