Monday, January 9, 2017

अपना -अपना कुंआ


हम सब के अपना- अपना कुंआ बनाते हैं। उसी में ताउम्र रहते भी हैं। कुछ लोग हैं जो उसकी परिधि को तोड़कर बाहर आ पाते हैं। कुंआ कोई भी हो, कहीं का भी हो लेकिन होता तो कुंआ ही है। यानी हमारी अपनी चुनी हुई सुरक्षित जगह जहां हम अपनी क्षमताओं और दुर्बलताओं के साथ जीने के लिए चुन लेते हैं। हमें अपने कुंए ही सीमा को पहनाने होंगे और पहचान कर उसके बाहर आने की कोशिश करनी चाहिए। जो अपने कुंए से जितनी जल्दी बाहर आ जाए वह उसके लिए बेहतर होता है। लेकिन यह सवाल भी बड़ा मौजू है कि हम क्यों अपने बनाए कुंए में भी रहना चाहते हैं। क्यों हम अपने कुंए की सीमा को नहीं तोड़ पाते हैं? दरअसल हम एक सुरक्षित स्थान और वातावरण में जीने के आदि हो चुके होते हैं। हमें उस परिवेश के बाहर ही दुनिया नहीं सुहाती इसलिए हम अपने कुंए में रहना पसंद करते हैं। लेकिन सच यह भी है कि जिसने भी अपने कुंए की पहचान कर उससे बाहर आने की कोशिश की है वह पहले अपने वातावरण और परिवेश से ही लड़ा है। अपनी कमजोरियों, आदतों और मजबूतियों से रू ब रू हुआ है। यहां हमें हमारी सीमाएं नजर आती हैं। हमें हमारी क्षमताओं का एहसास होता है। हम कुछ देर के लिए नई परिस्थितियों में ढलने और चुनौतियों का सामना करने से डरते हैं। यह डर ही हमें हमारे कुंए में बनाए रखता है।
हर पेशे की भी अपनी सीमाएं और चुनौतियां होती हैं जिन्हें पहचानने की आवश्यकता है। उस पेशे के लोग कई बार अपनी सीमाआें और कुंआ को बरकरार ही रखने में सहजता महसूस करते हैं। मसलन अध्यापक,लेखक, पत्रकार आदि। अध्यापक बहुत कम बार अपने कुंए से बाहर आने की कोशिश करते हैं। उनका तर्क यह होता है कि हमें तो पढ़ने का वक्त ही नहीं मिलता। कब पढ़ें? बच्चे पढ़ना नहीं चाहते। गैर शैक्षिक कामों में हमें लगा दिया जाता है आदि। इन तर्कों के पीछे हकीकत तो है लेकिन उससे ज्यादा एक सुरक्षित रहने और स्वयं को लाचार साबित करने की लालसा अधिक है। यहां हमने अपने लिए कुंआ का निर्माण किया कि परिस्थिति ही ऐसी है कि इससे बाहर नहीं निकल सकते। पढ़ने के लिए समय ही नहीं मिलता। गैर शैक्षिक कामों में झोंक दिया जाता है। जबकि कोशिश की जाए तो न केवल पढ़ने के अवसर निकाले जा सकते हैं बल्कि पढ़ाने के लिए भी समय तलाशे जा सकते हैं। लेकिन हमें हमारे तर्क वह कुंआ प्रदान करते हैं जिसमें हम उन्हीं तर्कों की आड़ में जीना और रहना सीख लेते हैं। यही परिस्थिति हमें सकून देने लगती है। यदि कोई बाहरी परिस्थिति व व्यक्ति हस्तक्षेप करता है व कुंए की पहचान करता है तब हम आक्रोशित हो जाते हैं। हमें लगता है कोई हमें कठोर आईना दिखा रहा है। जबकि उसने सिर्फ हमें हमारे कुंए की पहचान कराई है। ठीक उसी प्रकार लेखकों के भी अपने बनाए कुंआ होता है। उसी में उम्र भर जीता है। लेखकों के अपने तर्क जनित कुंए हैं। मसलन पाठक नहीं रहे। लोग किताबों से दूर जा रहे हैं। किताबों के मूल्य ज्यादा हैं। प्रकाशक की दुनिया लेखक की दुनिया को नियंत्रित करती है आदि। इन तर्कों के पीछे सच्चाई नहीं है ऐसा नहीं कह सकते। लेकिन क्या इन सच्चाइयों को स्थाई मान कर हाथ पर हाथ धर कर प्रयास करना छोड़ देना चाहिए? क्या लेखकों को अपनी सीमा में रह कर बाजारानुकूल लिखना शुरू कर देना चाहिए? आदि ऐसे प्रश्न हैं जिनसे लेखकों को टकराने की आवश्यकता है।
नए ज्ञान, नई तकनीक, संचार के नए माध्यमों को भी सब के अपने कुंओं से लड़ना पड़ता है। हर काल खंड़ में तकनीक, ज्ञान, संचार को एक संघर्ष के दौर से गुजरते हुए अपनी सीमाओं को तोड़ना ही पड़ा है। वर्तमान समय में भी तकनीक और ज्ञान-सूचना के संप्रेषण को उस मानसिक कुंए से रू ब रू होना पड़ रहा है जिन्हें लगता है कि तकनीक के विकास ने पाठकों को खत्म कर दिया है। दूसरे शब्दों में कहें तो तकनीक हमारी जीवन शैली को सहज बनाने में कुछ बने बनाए चौहद्दियों फलांगती है। इसमें कुछ दीवारें ढहती हैं। आधुनिक संदर्भ में ज्ञान व सूचना के महज प्रारूप् कंटेनर बदले हैं उसके उद्देश्य वही है पाठकों तक पहुंचना। वह चाहे ऑन लाइन हो, पाम टॉप हो, किंडल हो या आईपैड यदि किताबें पढ़ी जा रही हैं तो हमें क्यों न खुश होना चाहिए कि लोग पढ़ तो रहे हैं। स्वरूप कोई सा भी हो। यदि मुद्रित सामग्री या किताबें नहीं पढ़ी जा रही हैं तो उसे छापने में क्योंकर प्रकाशक पैसे लगाने लगे।
हम अपने जीवन में भी कई कुंए बना कर उसी अपनी जिंदगी बसर करते हैं। उसी में रह जाते हैं। हमें अपने कुंए से बाहर आना होगा तभी हमें हमारी क्षमता एवं कौशल को विकसने का अवसर मिल पाएगा। वरना ताउम्र यही तर्क बुनते रहेंगे कि अवसर नहीं मिला वरना क्षमता तो थी ही। यदि क्षमता है तो अपनी सीमा को पहचना कर उसे तोड़ विकसित भी करना होगा। कहीं मलाल न रह जाए कि वक्त नहीं मिला। वक्त निकलाने पड़ते हैं स्वयं की पहचान बनाने और विकसित करने के लिए परिवेश निर्माण भी काफी हद तक हम पर निर्भर करता है। तर्क और मनोरचना करना आसान है जिससे हम अपने चेतन मन को तो समझा लेते हैं लेकिन अचेतन मन हमेशा हमें ही दुत्कारता है।

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