Wednesday, July 6, 2016

स्कूल खुल गए, पर बच्चे नदारत


कौशलेंद्र प्रपन्न
स्कूल खुल गए। शिक्षक स्कूलों को लौट गए। मगर बच्चे! बच्चे अभी भी घरों में हैं। उनके लिए शायद छुट्टियां खत्म नहीं हुईं। शायद स्कूल उन्हें नहीं लुभा रहे हैं। शायद बच्चों को स्कूलों में ऐसी कोई चीज नहीं दिखाई दे रही हैं जिसके लिए वे स्कूलों की ओर भागंे। इन दिनों सरकारी स्कूलों के शिक्षकों से बातचीत हुई। उनका कहना था कि दो तीन बच्चे उनकी क्लास मंे हैं। पूरे स्कूल में मुश्किल से पंद्रह और बीस बच्चे ही आए हैं। अब सवाल यह उठना स्वभाविक है कि क्या यही स्थिति निजी स्कूलों मंे भी है? क्या वहां भी बच्चे स्कूल से नदारत हैं। क्या अभिभावक बच्चों को स्कूल नहीं भेज रहे हैं आदि। मगर हकीकत यह है कि निजी स्कूलों में स्कूल खुलने से पहले ही बच्चों ने तैयारियां कर लीं। स्कूल खुले नहीं कि बच्चों को उनके अभिभावकों ने भेजना शुरू कर दिया। इसके पीछे कारण कई हैं। पहला तो यही कि वहां ली जाने वाली फीस,प्रबंधन,अनुशासन ऐसा है कि क्या बच्चे और क्या अभिभावक सभी तत्परता से बच्चों को स्कूल भेजते हैं। यदि इस नजर से सरकारी स्कूलों और अभिभावकों को देखें तो एक आलस्य,गैर जिम्मेदाराना बरताव नजर आएगा। अभिभावकों को अपने काम से समय नहीं मिलता दूसरा उन्हें मालूम है स्कूल में पहले दूसरे तीसरे दिन पढ़ाई नहीं होगी। बच्चे गांव गए हांेगे आदि। और काफी हद तक यह सच्चाई भी है कि बच्चों गर्मी की छुट्टियों मंे अपने गांव चले जाते हैं। कुछ बच्चे अपने मां-बाप के साथ खेतों मंे काम पर लग जाते हैं।
शिक्षा की हालत को सुधारने के लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कई सारे कदम उठाए जा रहे हैं। सरकारी स्तर पर बात की जाए तो तमाम योजनाएं, नीतियां, आयोगों का गठन किया गया। मकसद यही रहा कि शिक्षा में गुणवत्ता और बच्चे स्कूली शिक्षा हासिल कर सकें। लेकिन फिर क्या वजह है कि बच्चे स्कूल से बाहर हैं? क्या कारण है कि जो बच्चे स्कूल आते हैं उन्हें अपनी आयु और कक्षानुरूप भाषा एवं अन्य विषयों की दक्षता नहीं मिल पाती। कारणों की तह में जाएं तो कुछ शैक्षिक चुनौतियां हैं तो कुछ प्रशासनिक। शैक्षिक स्तर पर हम पाते हैं कि नीतियां तो बना ली जाती हैं लेकिन उसके क्रियान्वयन में अड़चनें आती हैं। मसलन आरटीई 2009 के अनुसार किसी भी बच्चे को फेल नहीं किया जाना। हर बच्चे को अगली कक्षा में धकेल दिया जाना। शिक्षकों के अनुभव बताते हैं कि इस वजह से बच्चों में पढ़ने के प्रति ललक और गंभीरता कम हो गई। बच्चे स्पष्ट कहते हैं मास्टर जी फेल नहीं कर सकते। यह डर क्या शिक्षा का था या फिर फेल होने का? हमें तो शिक्षा तमाम किस्म के डर से मुक्त करने वाली होती है। वह जीवन के किसी भी हिस्से का डर क्यों न हो। मगर गौर से विमर्श करें तो शिक्षा अपनी उस प्रकृति को छोड़ चुकी है। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि शिक्षा की प्रकृति को किस किस स्तर पर खरोचों का सामना करना पड़ा है। शैक्षिक इतिहास पर नजर डालें तो हर आयोग, समितियों ने अपने अपने तरीके से शिक्षा को गढ़ने और ढाहने के प्रयास किए हैं।
नई शिक्षा नीति का प्रारूप तैयार है। इससे पूर्व राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2000 पर भगवाकरण का आरोप मुखर था। वह बिलावजह भी नहीं था। उसको 2005 में ठीक करने की कोशिश की गई। अब सवाल यह उठने लगा कि 1986 में बनी शिक्षा नीति को पुनर्निर्मित करने की आवश्यकता है। राजनीति और रणनीतिकारों ने हमेशा ही शिक्षा नीति, पाठ्यचर्या,पाठ्यपुस्तकों में अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को शामिल करते रहे हैं। यही वजह है कि पाठ्यपुस्तकें वैचारिक डोली को ढोनी वाली बना दी गई। वह राजस्थान हो, मध्य प्रदेश हो या फिर उत्तर प्रदेश आदि इन राज्यों के पाठ्यपुस्तकों में वैचारिक सेंधमारी देखी जा सकती है।
शिक्षा दरअसल किसके लिए है? इसे पाने वाला कौन है? इसपर विचार करने की आवश्यकता है। यदि बच्चों तक शिक्षा नहीं पहुंच पा रही है तो इसका अर्थ यह भी निकलता है कि हम या तो पहुंचाना नहीं चाहते या फिर समिति वर्ग को ही शिक्षा के घेरे में खड़ा करना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में शिक्षा सार्वजनिक मूल अधिकार न होकर ख़ास के लिए है। ख़ास लोगों, वर्गों तक यदि शिक्षा सिमट जाएगी तब समाज का विकास भी एकरेखीए ही माना जाएगा।
जो बच्चे स्कूल जा रहे हैं क्या उन्हें उनके स्तर के अनुसार सीखने का प्रतिशत भी बढ़ा है या वह फिसलन भर है इसपर भी विचार करने की आवश्यकता है। सरकारी और गैर सरकारी शोध रिपोर्ट मसलन डाईस फ्लैस रिपोर्ट, नूपा और प्रथम की रिपोर्ट कई सालों ने आगाह कर रही हैं कि बच्चों में भाषा, गणित, विज्ञान आदि की समझ और कौशल उनके कक्षा के स्तर के अनुरूप नहीं है। कक्षा पांचवीं व छह में पढ़ने वाले बच्चे सामान्य वाक्य नहीं पढ़ पाते। पढ़कर समझने वाले बच्चों का प्रतिशत तो और भी कम है। यहां सवाल उठता है कि क्या हम सिर्फ दाखलों के आंकड़ों में उछाल दिखाना चाहते हैं या फिर बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा भी देना चाहते हैं। हाल में शिक्षकों की शैक्षिक समझ और कौशलों को विकसित करने के लिए केंद्र और दिल्ली राज्य शिक्षा मंत्रालय ने प्रयास किए हैं ताकि शैक्षिक स्तर को सुधारा जा सके। कंद्र सरकार की ओर शुरू की गई मंडलीय शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थानों के शिक्षकों की स्कील विकास किया जाए। ठीक उसी तरह शिक्षकों की शैक्षिक दक्षता विकास के लिए प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन किया जा रहा है। इस योजना के तहत दिल्ली के टीजीटी और प्रधानाचार्यों का चयन किया गया है जिन्हें अन्य शिक्षकों को प्रशिक्षण प्रदान करना है। उन्हें कैंब्रिज, आॅक्सफोर्ड आदि विश्वविद्यालयों मंे भेजा जाएगा ताकि वे अपनी दक्षता को मांज सकें। आरटीई भी इस ओर हमारा ध्यान खींचती है कि स्कूलों मंे शिक्षक प्रशिक्षित हों। लेकिन अफसोनाक हकीकत यह है कि आज भी देश के विभिन्न राज्यों मंे शिक्षा जैसे अहम प्रोफेशन में गैर शिक्षित स्नातकों से काम चलाया जा रहा है।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...