Wednesday, July 13, 2016

एक मुहल्ला हुआ करता था


कहानी थोड़ी लंबी है आशा है पढ़ने का जोखिम उठाएंगे
उस मुहल्ले में कई व्यवसाय के लोग गांव से आकर बसने लगे। औरतें धीरे धीरे मांए बनीं। घर घर में बच्चों की किलकारियां उभरीं। एक कमरे से दो कमरे और मकान बने। सुबह काम पर पति के चले जाने के बाद औरतें आपस में बतकही किया करतीं। जब मुहल्ले में लोग बसने शुरू हुए तो एक परिवार से होते चले गए। किसी साथ सास होतीं तो किसी के साथ ननदें। बिन ब्याही बहनें भी साथ होंती। हर किसी को हर किसी के बारे में जानकारी होती। कौन किस गांव का है। किसके घर में कौन कौन हैं। सब मतलब सब कुछ सब को पता होता।
धीरे धीरे बच्चे गलियों में खेलने लगे। पांडे जी का बच्चा, बेचन का लड़का, बेचुवा की बेटी, गुप्ता जी का इकलौता लड़का ओम, शिवजग बाबू का अरूण सब साथ ही बड़े हो रहे थे। स्कूल भी साथ जाते। कई कई बार तो पता ही नहीं चलता किस घर का बच्चा किस घर मंे खाना खा रहा है और कहां दुपहरी में खेलते खेलते सो गया। इस कदर का विश्वास था। स्कूल पास किए किसी के हिस्से में बनारस तो किसी के हिस्से में हजारीबाग आया। कुछ बच्चे ऐसे भी थे जिन्हें उस शहर से बाहर निकलने का मौका नहीं मिला। यो वे वहीं के हो कर रह गए।
बच्चे बड़े हो ही रहे थे। अब काॅलेज भी पास कर गए। शादियां का दौर शुरू हुआ। शादी किसी भी घर में हो न्योता पूरे मुहल्ले को मिलता। बच्चे तो बिन न्योते के ही आमंत्रित होते। सुबह से लेकर रात तक शादी के घर के चक्कर काटा करते। रजाई, गद्दे, चैकी सब घरों में आवा जाही किया करतीं। बरतन तो जाहिरानातौर पर घरों में घुमा करते थे।
अब इस मुहल्ले को वह दौर भी देखना था जब बरतन बजने शुरू हुए। अब वह अपनापा कम सा होने लगा। बातें छुपाई जाने लगीं। बहु खुल्ले बाल में घूमती है। फलां का बेटा वापस घर देर से आता है। काम भी छूट गया है। जैसी बातें मिर्च मसाले के साथ मुहल्ले की गलियों मंे तैरने लगीं।
जिस मुहल्ले से जवानी देखी थी। जच्चगी से गुजरा था अब उसे बुढ़ापे की ओर भी जाना था। वही मुहल्ला है जहां अब या तो घर बिक गए। कोई और रहने लगा। बेटा दूसरे शहर में बस गया। शरीर साथ नहीं देता। घर ढन्नढना रहा है। ऐसे में ताले लगने शुरू हुए। साल मंे एक दो बाद कुछ हप्तों के लिए लोग लौटते। जवान सखियां बुढ़ी हो चुली थीं। सालों गुजरने लगे एक दूसरे से न मिले। जब दिल्ली जैसे महानगर में बेटों के घर सखियां रहने लगीं तो मिलने की चाह होने के बावजूद भी मिल नहीं पातीं। बेटों के अपने दरकार थे।
...और इस तरह से गुलजार मुहल्ला वृद्ध ग्राम,गली में तब्दील होता गया। वह मुहल्ला अब भी याद आता है।

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