Friday, July 8, 2016

रचना का भूगोल


कौशलेंद्र प्रपन्न
जब भी कोई कवि कविता व कहानी लिखता है तब उसकी रचना में भूगोल साफ नजर आती हैं। यदि कवि अपनी रचना का भूगोल नहीं बना पाया तो एक अर्थ में वह कविता शायद पाठकों को अपनी ओर न लुभा पाए। बड़े से बड़े कवियों की रचनाओं में एक ख़ास भूगोल तो हुआ ही करता है। यदि राजेश जोशी जी की कविता पढ़ें या मंगलेश डबराल या फिर विष्णु नागर की इन कवियों की खासियत ही यही है कि जब ये कविता लिख रहे होते हैं तब उसमें एक भूगोल भी रचा जा रहा होता है। कहीं किसी की कविता मंे पहाड़,जंगल, जमीन,परती जमीन वंचितों की आवाज केा जगह मिलती है तो कहीं दंगे के बाद के मंजर को भूगोल में जगह मिलती है। इतना ही नहीं, बल्कि इनकी कविताएं भूगोल के साथ ही वर्तमान चुनौतियों और राजनीतिक चैहद्दी भी बनाया करती हैं। यही वजह है कि जब हम राजेश जोशी की कविता दंगे के बाद को पढ़ते हैं तो लगता है यह आज की ही किसी दंगे के बाद की बात की जा रही है। ‘बच्चे काम पर जा रहे हैं’ पढ़ते वक्त लगता है कि यह बात भी इसी सदी, इसी समाज की तो की जा रही हैं। वहीं जब हम अज्ञेय की कविता संाप को पढ़ते हैं तो आज का समाज और नागर समाज के दोमुंहेपन से भी हम रू ब रू होते हैं। सच्चे अर्थाें में कवि अपनी रचनाओं में वत्र्तमान को तो जिंदा रखता ही है साथ ही आने वाले उजले दिनों के लिए एक रोशनदान भी छोड़ जाता है। आज की कविताएं और कविताओं का भूगोल बहुत तेजी से बदला है, बल्कि बदल रहा है। जिस तेजी से कविताओं के परिदृश्य बदले हैं उसी रफ्तार से कविताओं के सरोकार भी बदले हैं। हालांकि हर काल मंे रस रंग, प्रेम, शृंगार की कविताएं लिखी गईं हैं। तो साथ ही जायसी,कबीर जैसे विरोध के स्वर को बुलंद करने वाले गैर चारणीय कवियों ने बड़ी ही मजबूती से कविता के सार्वकालिक और सार्वदेशिक दरकारों को आगे बढ़ाया है। एक ओर चांद का मुंह टेढ़ा है, असाध्य वीणा, राम की शक्ति पूजा आदि लिखी जा रही थी तो उसी के समानांतर सरोकारी कविताओं की सृजना भी हो रही थी।
जैसे जैसे तकनीक का विकास हुआ है वैसे वैसे हमारी कविता भी सोशल मीडिया पर रची जाने लगीं। गैर जमीनी यानी वर्चुवल स्पेस में लिखी जाने वाली कविताएं व रचनाएं संभव है आज लिखी गईं, उन्हें पसंद करने वालों ने पंसद के बटन भी दबाए और आगे बढ़ गए। लेकिन अगले दिन उसे भूल जाते हैं। यहां पाठकों की भी कोई ख़ास गलती इसलिए नहीं है, क्योंकि उन्हें हर पल, हर घड़ी दसियों पंक्तियां पढ़ने को मिल रही हैं। पिंट रिच वातावरण तो बना ही है जहां हजारों की संख्या में हिन्दी व गैर हिन्दी भाषा में साहित्य लिखे जा रहे हैं। यह एक सुखद बात है कि कम से कम लोग चुप नहीं बैठ गए हैं। बल्कि जिसके पास जो साधन है उसी के मार्फत लिखने और प्रसारित करने से परहेज नहीं करते। यह अगल विमर्श का मुद्दा है कि क्या हम देखने को पढ़ना मानें? क्या हथेलियों पर स्क्रीन को सरकाते हम वास्तव में पढ़ते हैं या बस कंटेंट देखकर लाइक बटन दबा कर आगे निकल जाते हैं। विभिन्न तरह के सोशल स्पेस में लिखी जाने वाली कविताएं और कहानियों की बात करें तो कविताओं की बढ़त साफ दिखाई देती है। इन सोशल स्पेस में रची जाने वाली कविताओं की दुनिया भी बड़ी ही एक रेखीय ही है। जिन्हें उस स्पेस के बारे में जानकारी है वो तो देख-पढ़ पाते हैं बाकी सब शून्य।
कई बार यह सवाल उठाया जा चुका है कि कविता और कहानी के पाठक कम हो रहे हैं। दूसरे शब्दांे मंे कहें तो पाठकों की कमी का रूदन अक्सर सुनने मंे आता है। लेकिन फिर एक सवाल बड़ा ही दिलचस्प उठता है कि जब पाठक ही नहीं हैं तो कवि या लेखक किसके लिए लिख रहे हैं। कौन है जो किताबें खरीद रहा है? कोई है समाज में जिसे किताबों से आज भी मुहब्बत है। वरना प्रकाशक हजारों की संख्या में किताबें क्यों छाप रहे हैं। इस ओर जब नजर दौड़ाते हैं तो पाते हैं कि लेखक,कवि, कथाकार लगातार विभिन्न विधाओं में लिख पढ़ रहे हैं और उनके पाठक भी हैं। यह एक उत्साह का विषय होना चाहिए। पिछले दिनों जिन प्रमुख किताबों पर देश भर में विमर्शकारों ने चर्चाएं कीं और उनकी नजर से किताबें पढ़ने योग्य लगीं उनपर नजर दौड़ाएं तो उनमें कथा, कविता एवं गैर कथा विधायी किताबें अपनी कथानक की वजह से पाठकों को लुभाने मंे सफल रहीं।
कहानी कविता लेखन की कार्यशालाएं देश भर में विभिन्न साहित्यिक संस्थाएं समय समय पर आयोजित करती हैं जिसमें युवा कथाकारों व कवियों को दो या तीन दिन तक विभिन्न सत्रों में इस विधा में कैसे लिखी जाए इसकी बारीक प्रकृति से रू ब रू कराया जाता है। इस तर्ज पर यदि आलोचना व समीक्षा की बात करें तो आलोचना व समीक्षा विधा को लेकर बेहद कम कार्यशालाएं होती हैं। जबकि कायदे से इस विधा को बचाए रखने के लिए अकादमी, साहित्यिक संस्थाओं को योजना बनानी चाहिए।यदि रणनीति व योजना नहीं बनाई तो वह दिन दूर नहीं जब समीक्षा व आलोचना का भूगोल लगभग खाली हो जाएगा या फिर बेहद दलदली जमीन हो जाएगी। हमें तथाकथित समीक्षकों आलोचकों से वर्तमान समीक्षा को बचाने की भी आवश्यकता है। कथा- कहानी और कविता की भूमि बेहद सक्रिय है। जिस तदाद में कविताएं, कहानियां लिखी और छप रही हैं उसके अनुपात में गद्य की अन्य विधाओं मंे गति थोड़ी धीमी है। जब हम रिपोतार्ज, यात्रा वृत्तांत, रेखाचित्र आदि किताबें तलाशते हैं तब हमें निराशा होती है। संभव है इस विधा में लेखकों की रूचि कम हो गई हो। हालांकि प्रताप सहगल की लेखनी कम से कम यात्रा वृत्तांत में सक्रिय है। यदि रेखाचित्र और रिपोतार्ज के भूगोल पर नजर डालें तो सूखा नजर आता है। जबकि गद्य की हर विधा का अपना आस्वाद है। यहां एक सवाल यह भी उठता है कि जो किताबें छप रही हैं उसका सामाजिक सरोकार कितना है? उस किताब की पठनीयता और उपादेयता कितनी है आदि भी परखना होगा। किताबें भी जिस आनन फानन में छपती और बाजार से नदारत हो जाती हैं यह एक अलग अंधेरे की ओर इशारा करता है। सौ, पचास प्रति छपने वाली किताबें अमूमन लेखक की प्रति भर ही होती हैं जिसे लेखक अपने दोस्तों, परिचितों और कुछ परिचित अखबारी,पत्रिकाओं के संपादकों को भेज दिया करते हैं। यदि कहीं छोटी सी भी परिचयात्मक समीक्षा छप गई तो लेखक अपने आपको धन्य मानता है। यहां तो रातों रात लेखक बनाए और बेचे जाते हैं। लेखकीय बाजार बनाने में कई बार प्रकाशकों की भी अहम भूमिका होती है। प्रकाशक अपनी किताब यानी उत्पाद को खपाने के लिए कई तरह के रास्ते अपनाता है। यदि हम आलोचना की बात करते हैं तो यह अतिश्योक्ति ही कही जाएगी। क्योंकि आलोचना व समीक्षा की परंपरा काफी हद तक परिचय में सिमट गई है। इन दिनों जिस तरह की आलोचना,समीक्षा, समालोचना आदि दिखाई दे रही हैं उसे देख कर लगता है कि समीक्षा कम बस खानापूर्ति ही हो रही है। हम जानते हैं कि अंतोत्गत्वा पुस्तकीय सामग्री समालोचना कर्म से गहरे संबंध रखती है। आज की तारीख में पुस्तकीय आलोचना व समीक्षा अख़बारों मंे परिचयनुमा ही छपा करती हैं।





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