Thursday, July 21, 2016

स्कूल से बाहर बच्चे और बाल मजदूरी बिल


कौशलेंद्र प्रपन्न
सन् 1986 के बाल मजूदरी संरक्षण अधिनियम में संशोधन कर कानून बनाने के रास्ते साफ हो गए हैं। हाल ही में राज्य सभा में ध्वनि मत से इस मसौदे को पास कर दिया गया। यह महज ख़बर नहीं है बल्कि इसके परिणाम घातक होंगे शायद इसका अनुमान नहीं है। न केवल भारत में बल्कि विश्व भर में लाखों बच्चे स्कूल से बाहर हैं। वे बच्चे स्कूल में नहीं हैं तो कहां हैं? क्या वे बच्चे काम पर जा रहे हैं? क्या वचे बच्चे अंतरिक्ष मंे गायब हो गए? कहां हैं वे बच्चे जो स्कूल में नहीं हैं?
एक ओर सौ वर्षों के लंबे संघर्ष के बाद पारित शिक्षा अधिकार अधिनियम बना और 2010 में देशभर में लागू हुआ। वहीं दूसरी ओर यदि यह कानून बन जाता है तो बच्चे स्कूल की बजाए काम पर जाते नजर आएंगे। गौर से विमर्श करें तो पाएंगे कि यह एक पूर्व कानून को धत्ता बताते हुए दूसरे कानून को जन्म देना है। पहला कानून बच्चों को 6 से 14 वर्ष के आयुवर्ग, से मजदूरी कराना अपराध है वहीं दूसरी ओर 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को यह बिल काम करने की अनुमति देती है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम जहां 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को शिक्षा प्रदान करने की प्रतिबद्धता दुहराता है वही वहीं बाल मजदूरी मसौदा उन्हें काम करने की छूट देता है।
2001 की जनगणना के अनुसार भारत में 12.5 मिलियन बच्चे मजदूरी में लगे थे। आंकड़ों की मानें तो 2009-10 और 2011 में इस संख्या में गिरावट दर्ज की गई और यह भारी संख्या घट कर 5.4 मिलियिन पर अटक गई। यह एक आंकड़ा है इसकी कितनी सच्चाई है एक सत्यापित करने और खोज खबर लेना एक अलग विमर्श की मांग करता है लेकिन इतना तो तय है कि बच्चे काम पर जा रहे हैं। मौजू है कि 1986 में बाल मजदूरी अधिनियम जहां बच्चों को विभिन्न खतरनाक कामों में लगाने से संरक्षित करने की सिफारिश करती है। वही 1989 में संयुक्त राष्ट में संपन्न बाल अधिकार संरक्षण अधिनियम में विश्व के तमाम बच्चों को मुख्यतौर पर पांच अधिकार दिए गए। इस दस्तावेज पर भारत ने भी दस्तखत किया था। इस ऐतिहासिक दस्तावेज में बच्चे को जीने, सहभागिता,विकास,भूख और शिक्षा का अधिकार देने की बात की गई है। लेकिन अफसोसनाक हकीकत है कि न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर लाखों बच्चे युद्ध में शिकार होते हैं और बतौर हथियार प्रयोग में लाए जा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर लाखों बच्चे खतरनाक कामों में अपना बचपन खत्म कर रहे हैं। प्रो कृष्ण कुमार की किताब चूड़ी बाजार में लड़की बड़ी ही शिद्दत से फरूखाबाद में चूड़ी निर्माण मंे बचपन से हाथ धोने वाली बच्चियों और बच्चों की चर्चा करते हैं। कैसे बच्चे कम उम्र में वृद्ध हो जाते हैं। विभिन्न उद्योगों में बच्चों के कौशलों का इस्तमाल किया जाता है। बनारस हो या भदोही जहां भी बारीक काम होते हैं चाहे वो कालीन बनाना हो, च्ूाड़ी बनानी हो वहां बच्चों को लगाया जाता है। आज की तारीख मंे बच्चे बेहद सस्ते और सुलभ मानव संसाधन हैं जिन्हें काम मंे जोत दिया जाता है। लेकिन 1986 के कानून और बाल मजदूरी संरक्षण अधिनियम के अनुसार यदि कोई व्यक्ति बच्चे को काम पर लगाता है तो पहली बार में 20,000 रुपए का जुर्माना भरना पड़ेगा। साथ ही जेल का प्रावधान भी है। हकीकत इससे काफी दूर है। कभी कभार मीडिया में ऐसी ख़बरें आती हैं बाकी तो बच्चे अपने काम में तल्लीन ही रहते हैं। अपनी आंखें फोड़ते, कमर तोड़ते काम में लगे रहते हैं। क्या बच्चे दोषी हैं या उनके अभिभावक भी जिम्मेदारी के घेरे में आते हैं जो बच्चों को स्कूल भेजने की बजाए अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारते रहते हैं।
हाल ही में यूनेस्को द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट पर नजर डालें तो पाएंगे कि विश्व भर मंे 26.30 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जाते। वहीं भारत पर नजर दौड़ाएं तो यह संख्या 1.1 करोड़ है जो स्कूल से बाहर हैं। हालांकि भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय मानता है कि 80 लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। यदि बच्चे स्कूल से हैं तो उन्हें तो उन्हें स्कूल तक लाने के लिए क्या प्रयास किए जा रहे हैं व क्या योजना बनाई गई है। सरकार तो अब उन बच्चों को स्कूल की बजाए काम पर भेजने की कानूनन तैयार कर चुकी है। कहने को तमाम कौशल विकास योजनाएं चलाई जा रही हैं। उसका मूल लक्ष्य क्या है? क्या हम बच्चों को शिक्षित करना चाहते हैं या काम में दक्ष बनाना चाहते हैं। कौशल विकास योजना में जिन कौशलों को शामिल किया गया है उसे देखकर यही लगता है कि बच्चे लकड़ी का काम, बिजली के काम, यानी आइटीआई की दक्षताएं पा कर बाजार में अपनी रेाटी का इंतजाम करने वाले हैं। हालांकि रोटी व रोजगार पाने का लक्ष्य कोई गलत नहीं है क्योंकि अंत मंे तो हम शिक्षा से रोजगार ही पाना चाहते हैं। अब सवाल यहां उठता है कि आठवीं, पास व नौवीं फेल बच्चा किस प्रकार के काम में लगेगा। हाल की एक रिपोर्ट की मानें तो दिल्ली में नौंवी में पढ़ने वाले बच्चों मंे से एक लाख बच्चे फेल हो गए। क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि वे उच्च शिक्षा में जाएंगे या काम के कौशल की ओर मुडेंगे। यूनेस्को की ही रिपोर्ट में बताई गई है कि भारत में उच्च माघ्यमिक स्तर पर 4.7 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जाते।
भारत में स्कूल से बाहर बच्चों की स्थिति की तुलना पाकिस्तान में स्कूल न जाने वाले बच्चों से करें तो यह संख्या दोगुनी है वहीं बांग्ला देश से पांच गुणी है। सवाल उठना स्वभाविक है कि इस तदाद में बच्चे स्कूल से बाहर हैं फिर भी हमारी नींद नहीं खुलती। तुर्रा यह कि हम 17 साल तक के बच्चों को मजदूरी व कमा करने की इजाजत दे रहे हैं। हम प्रकारांतर से सस्ते मजदूर पैदा करने की योजना बना रहे हैं जिसकी एक झांकी कौशल विकास योजना में मिलती है। पूछने वाले यहां पूछ सकते हैं कि भूखे पेट कौन पढ़ना चाहेगा? कौन अपने बच्चे को खाली पेट पढ़ने के लिए स्कूल भेजने को तैयार होगा। हर केाई पहले अपनी आर्थिक स्थिति ठीक करना चाहेगा। इसलिए बच्चे काम पर जा रहे हैं तो इसमें हर्ज ही क्या है। प्रश्न यह नहीं है कि बच्चे काम पर जा रहे हैं प्रश्न है हमारी मनसा क्या है। क्या हम बच्चों को स्कूल से बाहर रखकर सस्ते मजदूर पैदा करना चाह रहे हैं या फिर उन्हें अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल करने के लिए प्रेरित और प्रयास कर रहे हैं।


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