Friday, July 15, 2016

साहित्य की शिक्षा


कौशलेंद्र प्रपन्न

साहित्य से हमारा वास्ता प्राथमिक कक्षाओं से ही शुरू हो जाता हैं। बल्कि कहना चाहिए नानी-दादी की बचपन की कहानियों से ही साहित्य से हमारा जुड़ाव हो जाता है। जब हम कक्षायी व पाठ्यपुस्तकीय साहित्य और पाठ््यपुस्तकेत्तर साहित्य के बीच के संबंध को देखने की कोशिश करते हैं तब एक बड़ा अंतर हमें दिखाई देता है। वह साहित्य जो पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा नहीं हैं व नहीं बने हैं वे ज्यादा लुभाते हैं। लेकिन जब वही कविता, कहानी पाठ्यपुस्तकों मंे पढ़ाई जाती हैं तब हमारी पढ़ने की दृष्टि भी बदल जाती है। यही कारण है कि पाठ्यक्रमीय साहित्य और पाठ्यक्रम से बाहर के साहित्य के पाठकों में भी अंतर दिखाई देता है। प्राथमिक कक्षाओं मंे पढ़ाई जाने वाली कहानियां, कविताएं एवं साहित्य की अन्य विधाएं महज परीक्षा में सवालों के जवाब तक ही महदूद रहती हैं। कक्षायी कविता व कहानी के अंत में पूछे जाने वाले सवाल कई बार उस विधा के रसास्वादन में बाधा बनती हैं। बच्चे कविता, कहानी को महज परीक्षा में अंक हासिल करने के मकसद से पढ़ते हैं, आनंद कहीं पीछे छूटता जाता है।
अगर यह कहें कि साहित्य की शिक्षा अभी पूरी तरह से स्थापित नहीं हुई है। साहित्य तो खूब लिखी जा रही हैं। पाठ्यपुस्तकों में भी शामिल की जा रही हैं, लेकिन क्या उसके शिक्षण और शिक्षा शास्त्र पर भी ध्यान दिए जा रहे हैं? साथ ही साहित्य का शिक्षा-शिक्षण शास्त्र को समृद्ध करने की कोशिश की जा रही है? आदि सवालों पर हमें विस्तार से और ठहर कर विमर्श करने की आवश्यकता है। साहित्य की विधाओं को पाठ्यक्रमों में शामिल कर देना और उनके शिक्षण शास्त्र को मजबूत करना दो अलग कार्य हैं। एक लेखक व कवि लिखने के बाद आगे बढ़ जाता है। उसकी कविता व रचना को कैसे पढ़ाई जाए, यह कार्य उसके हिस्से नहीं आता। वह यह नहीं बताता कि उसकी रचना को कैसे और किस उद्देश्य से पढ़ाई जाए। यह जिम्मेदारी शिक्षकों पर आती है कि साहित्यिक रचनाओं को किस तरह पढ़ाएं। अभी तक हमारा साहित्य शिक्षा-शिक्षण शास्त्र कोई ख़ास मदद नहीं करता। सिर्फ पाठ के अंत में कुछ मशीनीकृत सवालों की शृंखला बनाने की। हमें कविता, कहानी, यात्रा वृत्तांत, संस्मरण, डायरी आदि को कैसे रोचक तरीके से बच्चों को पढ़ाएं इस ओर बहुत कम काम हुए हैं। हालांकि राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 भाषा शिक्षण पर तो विमर्श पेश करती है किन्तु साहित्य के शिक्षा-शिक्षण शास्त्र पर कोई खास मदद नहीं करती।
जब प्राथमिक कक्षाओं मंे साहित्य के विभिन्न विधाओं को बतौर पाठ के तौर पर शामिल करते हैं तो यहां यह भी जरूरत है कि उस विधा को कैसे पढ़ाएं इस पर भी रोशनी डाली जाए। मसलन कविता, कहानी,नाटक आदि का वाचन,उच्चारण, सस्वर वाचन कैसे करें, बच्चे कैसे उसे पढ़ें इस पर भी लिखा जाना चाहिए। देश के विभिन्न राज्यों के हिन्दी शिक्षकों के साथ कार्यशालाओं में अनुभव साझा करते सुनते महसूस हुआ कि उन्हें साहित्य शिक्षण के तौर तरीकों और साहित्य शिक्षण शास्त्र में हाथ थामने की आवश्यकता है। कक्षा 5 वीं की हिन्दी की किताब रिमझिम में श्री कुंवर नारायण एक कविता है ‘एक मां की बेबसी’ इस कविता को कैसे पढ़ाएं इसको लेकर शिक्षकों की शिकायत होती है कि इसे कैसे रोचक तरीके से पढ़ाएं। इस कविता को गाकर नहीं पढ़ाई जा सकती। न ही इसका लयबद्ध वाचन ही कर सकते हैं। इसी तरह प्राथमिक कक्षाओं की हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में कुछ और भी पाठ हैं जिन्हें पढ़ाने में दिक्कतें आती हैं। किताब व किताब का लेखक कैसे पढ़ाएं यानी शिक्षण शास्त्रीय मसले पर मौन हो जाता है। यहां शिक्षक पढ़ाने के दौरान असहाय हो जाता है। साहित्य शिक्षण की दिक्कतें नप केवल प्राथमिक स्तर पर बल्कि उच्च स्तर पर भी महसूस की जाती हैं। लेकिन उच्च स्तर पर इसकी छूट मिल सी जाती है। ख़ासकर बी ए व एम ए की कक्षाओं में तो सूर तुलसी, मुक्तिबोध की कविताओं की व्याख्याएं की जाती हैं लेकिन अफ्सोस की कविता की परतें कैसे और किस औजार से खोली जाए इसकी तालीम नहीं मिल पाती।
साहित्य के शिक्षण शास्त्र पर शिक्षा के विद्वानों को रोशनी डालनी चाहिए। क्योंकि बतौर साहित्यकार जो लिखना था वो तो लिखा जा चुका लेकिन जब कक्षाओं में उन्हें पढ़ाएं तो क्या और किस तरह से पढ़ाएं इसकी समझ हमें अपने शिक्षकों को देनी होगी। यह शिक्षा शास्त्र के हिस्से आता है कि विविध विधाओं की रचनाओं को पढ़ाते वक्त किस प्रकार की तकनीक व विधि अपनाई जाए। मसलन झांसी की रानी, पुष्प की अभिलाषा, बसंती हवा, सतपुड़ा के घने जंगल, ईदगाह, खिलौनेवाला, राख की रस्सी आदि कविता, कहानी या फिर डाकिए की कहानी कंवर सिंह की जबानी को कैसे रोचक तरीके से पढ़ाई जाए इसके शिक्षण शास्त्र पर भी काम करने की आवश्यकता है।
शिक्षकों की मानें तो हम कोई अभिनेता नहीं हैं कि हर कहानी कविता को अभिनय के माध्यम से पढ़ाएं। हमें यह बताया जाए कि कक्षा में कहानी व कविता को कैसे गतिविधियों के द्वारा पढ़ाई जाए। हालांकि कविता के जानकार मानते हैं कि हर कविता के भाव और अर्थ प्राथमिक कक्षाओं में बच्चे समझें ही। उन्हें बस कविता आनंद के लिए पढ़ाई जाए। आगे चल कर बच्चे स्वयं कविता का अर्थ समझ लेंगे। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि क्या आठवीं के बाद उन्हें हिन्दी व अन्य भाषायी कविताओं से रू बरू होने का मौका मिलता है? क्या उनके अंदर कविता को समझने व आनंद लेने की चाह बची रहती है। क्योंकि अमूमन कक्षा आठवीं तक आते आते बच्चों के सामने विषयों के चुनाव और छोड़ने की छूट होती है। बच्चे हिन्दी की जगह पर अन्य भाषाओं को चुन लेते हैं। तब क्या संभव है कि वे दुबारा पुष्य की अभिलाषा कविता को पढ़ें।
साहित्य शिक्षण के पीछे जो तर्क दिए जाते हैं उनमें वो ताकत नहीं होती जिसके आधार पर माना जाए कि साहित्य से संवेदना, मानवीय मूल्य बची रहती हैं। क्योंकि आज की तारीख में साहित्य के विद्यार्थियों में खासे कमी दर्ज की जा रही है। देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में बी ए, एम ए ;साहित्यद्ध के विभागों में पर्याप्त विद्यार्थी नहीं हैं। हिन्दी, संस्कृत, उर्दू विभागों में बच्चे दाखिला नहीं लेना चाहते। शायद इस कमी के पीछे साहित्य का बाजार और रोजगार बहुत बड़ी भूमिका अदा करती है। सोशल मीडिया पर बेशक घूम घूम कर शार मचा लिया जाए कि हिन्दी व अन्य भाषाएं फल फूल रही हैं। रोजगार के अवसर बढ़ें हैं आदि नारों से ज्यादा नहीं लगते। हकीकत यह है कि संस्कृत, उर्दू, हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं केे विद्यार्थिकों को रोजगार पाने के लिए अन्य कोर्स करने पड़ते हैं। तब जाकर इन भाषाओं से रोटी मिलती है। दूसरा मसला यह भी है कि बाजार ने काफी हद तक भाषा शिक्षण की हदें तय करनी शुरू की दी हैं। कौन सी भाषा कितनी महंगी है और कौन सी भाषा चलन से कट चुकी है इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं है।

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