Thursday, June 16, 2016

स्कूल जाने से यदि डरें बच्चे


-कौशलेंद्र प्रपन्न
कुछ ही दिनों के बाद स्कूल दुबारा खुलने वाले हैं। बच्चों को मिले गृहकार्य को पूरा कराने की जिम्मेदारी मां-बाप पर आने वाली है। यह एक माह बच्चों के लिए आनंद के दिन होते हैं। लेकिन अभिभावकों की दृष्टि से देखा जाए तो उनके लिए आफत के दिन होते हैं। इन बच्चों को कहां किस में व्यस्त रखा जाए यह एक चुनौती होती है। लेकिन बाजार यहां पीछे नहीं रहती। स्कूल की छुट्टियां होने से पहले ही विज्ञापन आने लगते हैं। पंद्रह दिन में या एक माह थिएटर वर्कशाॅप, व्यक्तित्व विकास,अंग्रेजी बोलने सीखें, गायन वादन की कक्षाएं पाएं और बच्चों को उनके व्यक्तित्व विकास करें आदि। मां-बाप भी इन बाजारी अवसरों को हाथ से जाने नहीं देना चाहते। सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं सब इन दिनों आपके बच्चों के लिए योजनाएं बनाती हैं। बस हमें अपने बच्चे को वहां भेजने की व्यवस्था करनी होती है। लेकिन एक बड़ा मसला यहां खड़ा होता है कि क्या हमारा बच्च्चा इन जगहों पर सुरक्षित है। क्या हमारा बच्च सुरक्षित हाथों मंे है आदि।
किसी दिन आपका बच्चा या बच्ची स्कूल जाने से मना करे तो इसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। उसके स्कूल जाने से कतराने के पीछे ठोस कारण को जानना बेहद आवश्यक है। क्योंकि, संभव है उसे स्कूल परिसर में अत्यंत विश्वसनीय अध्यापक की गंदी नजर पीछा करती हो। हो सकता है उसे क्लास में अकेले बैठने से डर लगता हो। हर वक्त एक भय, डर का माहौल उस मासूस बच्ची या बच्चे का सामना करता हो जिसे कई बार बच्चे प्रकट नहीं कर पाते। उस छूपे डर को हमें समझना होगा। हाल ही में दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में चैथी कक्षा की बच्ची के साथ 70 वर्षीय रिटाॅयड अध्यापक ने कक्षा में ही अश्लील बर्ताव किया। अध्यापक ने धमकी भी दी थी कि किसी को बताया तो जान से मार दूंगा, लेकिन बाल मन उस हादसे को पचा पाने में कामयाब नहीं रही और अगले दिन स्कूल न जाने की ज़िद ठान ली। जब पूरे मामले को समझा गया तो वह एक घिनौना कृत्य निकला जो गुरु की ओर से हुआ था। हालांकि यह घटना अकेला या पहली नहीं है और भी इसी तरह की बल्कि इससे भी ज्यादा संवेदनशील घटनाएं स्कूल परिसर में घटती रही हैं। सवाल यह उठ सकता है कि इस तरह की घटनाओं के बाद स्कूल प्रशासन, स्थानीय निकाय एवं शिक्षा- विभाग क्या कदम उठाती है। आनन-फानन में जांच के आदेश दिया जाना ही पर्याप्त नहीं माना जा सकता, बल्कि जांच आयोग व कमिटि की सिफारिशों पर अमल भी किया जाना चाहिए। क्या महज अमुक अभियुक्त को बर्खास्त कर देना ही इस तरह की घटनाओं को रोकने का समुचित तरीका माना जा सकता?
बच्चियां वैसे भी क्या स्कूल और क्या घर हर जगह उपेक्षिता रहती हैं। शिक्षा से उन्हें दूर रखने वाले अभिभावक यदि उन्हें स्कूल भेजता है तो वह एक तरीके से जोखिम ही उठाता है। वह सामाजिक, सांस्कृतिक एवं देशकाल की चुनौतियों को आमंत्रित करता है। स्कूल बीच में छोड़ जाने वाले बच्चों, बच्चियों को किस तरह दुबारा शिक्षा, स्कूल की मुख्य धारा से जोड़ा जाए। स्कूल बीच में छोड़ जाने के वाले बच्चों के पीछे बहुतेरे कारण होते हैं। उसमें समाजो-सांस्कृतिक, आर्थिक एवं इस तरह की अप्रत्याशित घटनाएं भी मुख्य भूमिका निभाती हैं। जिस गांव-शहर, स्कूल में ऐसी घटना जिस व्यक्ति के घर घटती है वह परिवार सबसे पहले अपने बच्चे व बच्ची का स्कूल से नाम कटा लेता है। और इस तरह से पुरुष की लपलपाती चीभ बच्ची की शिक्षा तो खा ही जाता है साथ ही उसके बाल मन पर एक अमिट छाप भी छोड़ जाता है। दुहराने की आवश्यकता नहीं कि गुरु को समाज में क्या स्थान प्राप्त है या शास्त्रों में गुरु की तुलना किन किन से श्रेष्ठ बताया गया है। यहां तुलना ही करना है तो आज के संदर्भ में गुरु की बदलती भूमिका, उसका अपने व्यवसाय के प्रति प्रतिबद्धता और निष्ठा को जांचा जाना चाहिए।
शिक्षक वर्ग की छवि भंजक ऐसे अध्यापकों की कमी हमारे समाज में नहीं है। तकरीबन हर स्कूल, काॅलेज एवं विश्वविद्यालय में इनकी प्रजाति मिल जाएंगी। जरूरत इस बात की है कि इनसे कैसे निपटा जाए। क्योंकि यही एक दो मनोविदलित अध्यापकों की वजह से समस्त शिक्षक समूह की विश्वसनीयता को शक के घेरे में खड़ी हो जाती हैं। यदि ऐसे अध्यापकों की उम्र देखी जाए तो ज्यादातर घटनाओं में उम्रदराज पके बाल, नाती- पोता वाले ही मिलेंगे। कम उम्र वालों की संख्या ज्यादा नहीं है। इसलिए यह और गंभीर मामला है। पिछले कुछ सालों में घटी ऐसी घटनाओं पर नजर डालें तो पाएंगे कि घटना की जांच रिपोर्ट पर कोई खास कारवाई नहीं की गई। समय के साथ रिपोर्ट कहीं किसी विभाग व फाईल में दबी हुई है। जबकि होना तो यह चाहिए था कि उस रिपोर्ट पर शख्ती से कारवाई होती ताकि ऐसी मानसिकता वाले अध्यापकों को कुछ सबक मिलता।
शिक्षा- शास्त्र, शिक्षा-दर्शन व शिक्षा मनोविज्ञान किसी भी प्रशिक्षु शिक्षक को इस बात की छूट नहीं देता कि वह अपने आचरण, व्यवहार व भूमिका से समझौता करे। कक्षा में उपस्थित शिक्षक प्रकारांतर से मौजूद छात्रों के लिए किसी रोल माॅडल से कम नहीं होता। बच्चे अध्यापक के जितने करीब होते हैं उतना तो वो कई दृष्टि से अपने मां-बाप से नहीं होते। कक्षा के अंदर या बाहर एक शिक्षक बच्चों के लिए रोल माॅडल तो होता ही है साथ ही एक दोस्त, अभिभावक भी होता है। यदि सर्जक ही बच्चों को खाने पर उतारू हो जाएं तो यह चिंता का विषय बनता है। आखिर क्या वजह है इन घटनाओं के पीछे? जवाब हो सकता है कि बच्चे क्योंकि सुरक्षित एवं सुलभ वस्तु होते हैं जिसपर इस तरह की मनोवृत्ति वाले अध्यापक की नजर होती है। कुछ बच्चे तो अपने साथ हुई इस तरह की घटना को समझ भी नहीं पाते कि कुछ गलत हुआ है। इन अबोध बच्चों के मनोजगत् को धैर्य से समझने की आवश्यकता है। बाल मन में बैठे इस तरह के डर को एक बच्चा ताउम्र ढोता रहता है।
जब देश की राजधानी में, जहां तमाम तंत्र सक्रिय हैं वहां ऐसी घटनाएं हर दो तीन महीने में घटती हों तो बाकी के राज्यों में क्या होता होगा इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। कुछ अध्यापक ऐसे भी रसूख वाले हैं कि वो घटना को इस तरह मोड़ देते हैं कि प्रशासन, विभाग उनके खिलाफ चंद कवायदें भर कर पाती हैं। यदि पीड़ित बच्चा गरीब परिवार से ताल्लुक रखता है तब तो घटना को सहजता से दबा दिया जाता है। लेकिन आज मीडिया जिस तरह मुद्दे को पकड़ती है उससे एक भय समाज में ऐसे लोगों पर भी दिखाई देता है।


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